पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/७४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५२
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

५२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली ____लाला-सबसे सब प्रकार लाओ-लाओ कहने वाला अथवा सच्ची योग्यता के नाते दूध पीने वाला बच्चा । "कनवजियों" में छोटे लड़कों को कहते हैं अथवा एक प्रकार का ऊपर लाल भीतर काले दाग वाला फूल । ब्रह्मचारी-बरहम फारसी शब्द है-उलटा, अनर्गल, विरुद्ध इत्यादि का वाचक और चारी संस्कृत में चलने वाले, बर्तने वाले आदि को कहते हैं । अर्थात् बामाचारी स्वतंत्रचारी इत्यादि का पर्याय समझना चाहिए। गिरस्त-आलसी जो गिरते २ अस्त हो जाय पर हाथ पांव हिलाने को धर्म प्रतिष्ठा कुलरीति आदि १०० बहाने करें। अथवा गृहस्थ, जो घर ही में स्थित देहली न लांछ। बानप्रस्थ-जो घर का बसा कर डाले और उसी में "प्र-खूब" स्थित रहे। संन्यासी-अच्छे कामों को त्याग कर देने वाला, धर्म के नाम पर मुड मुड़ा के खली तेल छू डालने वाला संनासी। प्रातः संध्या-गंगा किनारे गोमुखी में हाथ डाले जनाने घाट की तरफ देख २ के, आँखें बना २ के मुसकिराहट के साथ कुछ कहना। सायंसंध्या-ठंडी सड़क मे किसी होटल को जगाना। श्राद्ध- रंडिका भवन के पुरुषों को पिंडदान करना "सुवर्ण वर्ण वनिता वरांगिके । रेजिरे सित तनूनवांकुरैः । तर्पणाय वेद मदनाल से स्वर्ण पात्र विकरास्तिला यवाः ।। तरपन-जीवित माता पिता पर बात २ पर सिंवत् तड़पना। र और ड़ का बदला है। बलिबश्वदेव-बलि "बकरा काट" बेसवा "रंही" को ( सर्वस्व ) देव । अग्निहोत्र-व्याह में हजारों की भातिशबाजी फूंक के मेघमंडल को छिन्न भिन्न एवं दुर्गधिपूर्ण कर देना। अतिथि सेवा-अंगरेजों को खाना देना, मुग्यांड और मांस से जनेऊ चुटिया तिलक मादि की इजत बढ़ाना। धर्म-दूसरी संप्रदाय के पुरुषों को गाली देना। वेद-आर्यसमाज और धर्मसभा की फूट का बीज । यग्य-पुत्रउवाच "का कहन जुवा माँ ५० रपया हारि आयन" इत्या माता बोली "बड़ी जग्गि कीन्ह्यो"! दान-पीकदान इत्यादि । देवाले-पराई जमा गपक बैठना । एक बचन "देवाला"। सुरालय-सुरा "मदिरा" आलय "घर" अर्थात् गद्दीवाना। शिवालय-शिवा "शृगाली" आलय स्थान । जहाँ मियारिन की तरह स्त्री फेंकरा करें अर्थात् "कनवजियों का घर"। तीर्थ-बहिराइच, मकनपुर, गजनेर वगैरह । नास्तिक-हमें छोड़ के दुनिया भर के मतावलंबी।