पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली घर तो बांधो । लाला मसजिद पिरसाद सिड़ी वा सितम को समझायो कि तुम्हारे बुजुर्गों की बोली उर्दू नहीं है । लाला लखमीदास माड़वारी से कहो कि तुम हिन्दू हो। लाला नीचीमल खन्ना से पूछो, तुम लोग संकल्प पढ़ते समय अपने को वर्मा कहते हो कि शेख ? पंडित यूसुफनारायण काश्मीरी से दरयापत करो कि तुम्हारे दशो संस्कार (मुंडनादिक) वेद की रिचाओं से हुए थे कि हाफिज के दीवान से ? इसके पीछे सरकार हिंदी के दफ्तर न कर दे तो ब्राह्मण के एडिटर को होली का गुडा बनाना। क्या सरकार जानती नहीं है कि हिंदुस्तान की बोली हिंदी ही है ! क्या सर्कार से छिपा है कि यहां हिंदुओं की अपेक्षा मुसलमान दशमांश से भी कम हैं ? क्या शिक्षा कमीशन धाले अंगरेज, जो दुनिया को चरे बैठे हैं, वे न समझते थे कि हिंदी से प्रजा का बड़ा उपकार होगा ? पर हो जहादी हजरत से बुरा कौन बने ? फूट के लतिहल, आलस्य के आदी, खुशामद के पुतले हिंदू नाराज ही हो के क्या कर लेंगे ? बहुत होगा एक बार रो के बैठ रहेगे । बस उरदू बीबी को कौन मुआ उठा सकता है ? कुछ दिन हुए सरकार ने हर जिले के हाकिमों से पूछा था कि हिंदी के प्रेमी अधिक हैं कि उर्दू के आशिक जिआदा हैं । इस पर हमारे यहां के कई एक घरममूरत धरमावतार कमिश्नरों ने कहा 'म्हा तो जाणे कोयना हिंदी कैसी और उर्द कोण', जैसी हजर को मरजी होय लिख भेजो। सच भी है-सातो विद्या निधान, काला कुत्ता कलकत्ता एक समझने वालों को शहर का बंदोबस्त मिला है और बिचारे क्या कहते ? भला ले इन्हीं लच्छनों से नागरी का प्रचार होगा ? यदि सचमुच हिंदी का प्रचार चाहते हो तो आपस के जितने कागज पत्तर, लेखा जोखा, टीप तमस्मुक हैं, सब में नागरी लिखी जाने का उद्योग करो। जिन हिंदुओ के यहां मोलवी साहब बिसमिल्ला कराते हैं उनके यहां पंडितों से अक्षरारम्भ कराया जाने का उपकार करो । तन मन धन लगा के हिंदू मात्र के चित्त पर सर्व गुणागरी देवी नागरो का पवित्र प्रेम स्थापन करने के लिए कटिबद्ध हो । चाहे कोई हमे, चाहे कोई धमकावे, चाहे कोई कैसा हो डर दिखावे, जो हो सो हो, तुम मनसा वाचा कर्मणा उर्दू को लूलू देने में सन्नद्ध हो । इधर सरकार से भी झगड़े खुशामद करो, दांत निकालो, पेट दिखाओ, मेमोरियल भेजो। एक बार दुतकारे जाओ फिर धन्ने परो। किसी भांति हतोत्साह न हो । हिम्मत न हारो। जो मनसा राम कचियाने लगे तो यह मंत्र सुना दो, 'प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीः प्रारभ्य विघ्ननिहता विरमन्ति मध्याः विघ्नैः सहस्रगुणितरपि हन्यमानाः प्रारभ्य चोत्तमजनान परित्यजन्ति ।' बस फिर देखना पांच ही सात बरस में फारसी छार सी उड़ जाएगी, उरदू की तो बुनियाद ही क्या है ! नहीं तो होता तो परमेश्वर के किये है, हम सदा यही कहा करेगे 'पीस का चुकरा माव का छीता इरन', घूरे के लत्ता बिनै कनातन का डौल बांध'। हमारा भी कोई सुजेगा ? देखें कौन माई का लाल पहिले सिर उठाता है ! खं० २, सं० १ (१५ मार्च सन् १८८४ ई०)