पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५५५

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परिशिष्ट ] ५२९. वा पत्र का लेना छोड़ दें तो जी ऊभता है, मनो विनोद में विघ्न पड़ता है। संत के म्यम्बर वा ग्राहम बनने का आवेदन करें तो दर नो के आगे आंखें नीची होती हैं। यकरार करके न पूरा करें तो गैरत प्राती है स प्रकार के चित्त को अजब उलझन में डाले रहते हैं । ऐसे सज्जनों के सुभीते के लिए हमने एक सलाह सोची है, अर्थात सम्भव हो तो नित्य नही तो हफ्ते २ थोडा २ न अरग रख दिया करें अथवा यह समझ लिया करें कि गरीबों के सन्तान वृद्धि होती है तो क्या करते हैं, जो मनुष्य पांच रुपए मात्र मासिक आय रखता है और उसी में गाना तथा गृहिणी का निर्वाह करता हैं उसके यदि एक लड़का भी पैदा हो जाय तो क्या करेगा ? फेंक देहोगा नहीं, कम से कम दस वर्ष तक वह लड़का कपाने लायक हो हो न जायगा, कहीं गड़ा हुआ खजाना मिलने से रहा, आखिर झख मार के उसी थोड़ी सी आमदनी में दो आदमियों की जगह तीन का भरण पोषण करना पड़ेगा। बम इतना विचार कर लेने से चाहे जो हो एक दो अच्छे कामों में महायता देने का व्यसन निभाता जायगा। यों समझ लेना चाहिए कि बाजे हाकिम ऐसे प्रजावत्सल होते हैं कि जहां सैर करने निकले वहीं नगर मे हलकम्प पड़ जाता है। किमी गरीव की बकरी सडक किनारे बंधी है, दो रुपया जुर माना। किसी दुखिया के द्वार पर दो चार मूली के पत्ते पडे हैं, चार रुपया जुरमाना । किमी दिहातो विधवा ने कंडों की टोकड़ी किमो चबूतरे पर रख दी है, पांच रुपया जुरमाना । ऐसी हालत म यह दीन प्रजाजन क्या करते हैं ? किसी न किमी रीति मे दे ही गुजरते हैं न ? पपील करें तो पेट के लिए दौडने का समय कचहरी मे जीने । अभी दो ही चार में पीछा छूटना है, फिर और पलेथन देना पडे इमसे यही ममझ लेते हैं कि राजदंड तना ही पड़ता है। बस जब घसियारे ऐसा खर्च सह लेते हैं तो उनसे कहीं अन्छे हैं । ऊपर से जो कुछ जो कड़ा करके दे डालिएगा वह देश सेवा मे मुक्त होगा। फिर क्यों न समझ लीजिए कि हम ऐसे हो स्थान के वासी हैं जहां का धर्म अथवा देशहित नामक हाकिम ऐसा ही है। यों समझर लेने से और इसी समय का अनुसरण करने से आशा है कि बड़े २ कामों के लायक धन जुड़ जायगा । तुम्हें तो कुछ बडी रकम देना भी नहीं है। हिंदी के पत्रों भर में 'हिंदो- स्थाम' का मूल्य सबसे अधिक है, सो दस रुपना साल । और बड़ी से बडी सभाओं का चंदा बड़ी हद्द दो रुपया महीना । विचार देखिए तो इतना सा खर्च हुई क्या जिसके लिए तकाजा सहो, नादिहंद कहलाओ और आत्मा को उलझेड़ में डाले रहो । यदि ऐसा समझते तो क्यों अच्छे २ पत्र तथा सभाएँ टूट जाती और जो हैं उन्हें चलाना दुस्साध्य होता। क्या कोई सत्पुरुष इसे पढ़के 'श्री हरिश्चन्द्र कला' 'हिन्दी प्रदीप' और 'ब्राह्मण' को कुछ सहारा पहुँचावेंगे ?' खं० ७, सं० ३ ( १५ अक्टूबर, ह. सं० ५। ३४