पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५५३

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परिशिष्ट ] ५२७ आगामी मास से हम वेल्यू पेएविल डाक द्वारा 'ब्राह्मण' भेजेंगे। इससे हमारे अनुग्राहक हमें आशा है कि रुष्ट न होंगे, क्योंकि यों भी तो उन्हें मनीआर्डर में दो आने देने पड़ते हैं, वही वेल्यू पेबिल में भी देना पड़ेगा। हमारी धृष्टता अवश्य है पर क्या करें, धन के बिना लाचारी है, इससे बुद्धिमानों को क्षमा करना योग्य है। ____ 'ब्राह्मण' की हालत अच्छी नहीं है। कारण येवल हमारी गफलत, बेईमानों को बेईमानी और सहायकों का अभाव मात्र है। जब बड़े २ राजा बावुओं ने असली दाम तक न दिए तो औरों से क्या आशा है। हां यदि दस पांच हमारे निज मित्र इसकी दस २ पांच २ कापियां बेच दिया करें तो भी कुछ दिन काम चल सकता है, नहीं तो जो इच्छा परमेश्वर की। ____ अब हमारे ग्राहकों को नीचे लिखे पते पर मूल्य भेजना चाहिए और ठौर भेजने से हम उत्तरदाता न होंगे। खंड ५, सं० : ( १५ अक्टूबर, ह० सं० ४) सब की देख ली ___ जब 'बाह्मण' का जन्म हुआ था तब कानपुर के तथा दूर के लोग, जो पंडित जी और बाबू जी और मुंशी जी औ लाला साहब ओ राजा साहब कहलाते हैं, अपने को धनवान ओ प्रतिष्ठाधान लगाते हैं, बल्कि खुशामदो लोग उन्हें और भी बड़ी २ पदवी दे के भांड़े पर चढ़ाते हैं, वे स्वयं अपने को देशहितपो, स्नेहतत्वज्ञ, उदारप्रकृति समझते हैं तथा हमसे मौखिको मित्रता ( जबानी दोस्ती ) भी रखते हैं और हम भी उन्हें कम से कम पांच और अधिक से अधिक बीस बरस से करीब सच्चा समझते थे, उन्होंने छाती ठोक २ अथवा ताव के ताव लिख २ के सूचित किया था कि हम तन मन धन से 'ब्राह्मण के साथी हैं', वरंच जब हमने बीमारी के सबब 'ब्राह्मण' बंद कर दिया था तब उलहने पर उलहना देते थे, तकाजे पर तकाजा करते थे कि निकालो, हम तो तुम्हारे साथ हैं, तुम घबराते क्यों हों ? अस्तु हमने निकाला, पर उन महापुरुषों से सहायता के नाते एक पैसा, एक लेख, एक नए ग्राहक का नाम भी मिला हो तो हम गुनहगार । हम इस बात की कसम नहीं खा सकते कि सहायक कोई नहीं है, पर बिन्होने मुहर्रम की भांति छाती ठोंकी थी उनकी करतूत यह है कि बहुतों से दाम भी न मिले । हमने लाज छोड़ के मांगा तो आज कल । रिण से अधिक उकता के वेल्यूपेएबिल डाक में 'ब्राह्मण' भेजा तो 'मकतूब न्यलह इनकार करता है'। खैर ! यहां क्या है, किसी का रुपया गया किसी को शेखी गई, एक दिन ब्रह्मघाती की फेहरिस्त ... ... ... " पर यह कहने का हमें साहस बना बनाया है कि सब की देख ली। खं. ५, सं० ३, ४ ( १५ अक्टूबर-नवंबर, ह. सं० ४)