पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५४५

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परिशिष्ट]
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परिशिष्ट] विज्ञापन दाता जजमान ! प्यारे पाठक !! अनुग्राहक ग्राहक !!! चार महीने हो चुके 'ब्राह्मण' की सुधि लेव । गंगा माई जे करें हमें दक्षिणा देव ॥ १ ॥ जो बिन मांगे दीजिए दुहुँ दिश होय अनंद । तुम निवित हो हम कर मांगन का सौगंद ॥ २ ॥ सदुपदेश नित ही करें मांग भोजन मात्र । देखुहु हम सम दूसरा कहां दान कर पात्र ॥ ३ ॥ तुर्तदान जो करिय तो होय महा कल्यान । बहुत बकाये लाभ क्या समुझ नाव जजमान ॥ ४ ॥ रूप राज की कगर पर जितने होयं निशान । तितै वर्प सुखसुजस जुन नियत रही जजमान ॥ ५ ॥ खंड ३ अंक ५ ( १५ जुलाई ह. सं. १) हरिगंगा आठ मास बीते जजमान । अब तो करी दच्छिना दान ॥ हरि गंगा आजु काल्हि जो रुपया देव । मानो कोटि यज्ञ करि लेव ॥ हरि० मांगत हमका काग लाज। रुपया बिन चले न काज ॥ हरि० तुम अधीन ब्राह्मन के प्रान । ज्यादा कौन बकै जजमान ॥ हरि० जो कहुँ दही बहुत खिझाय । यह कौनिउं भलमंसो आय ॥ हरि. सेवा दान अकारथ होय । हिंदू जानत हैं सब कोय ॥ हरि० हंसी खुसी ते रुपया देन । दूध पूत सब हमते लेव ॥ हरि० कासी पुन्नि गया मा पुनि । बाबा बैजनाथ मा पुनि ॥ हरि० खंड ३, सं० ८ ( १५ अक्टूवर ह० सं० १