पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५४१

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( ५१५ ) चिरसाथिन की अस्वस्थता के कारण 'ब्राह्मण बार २ डगमगाया और निकलने में नियमपूर्वक अनियमित रहा । पं० प्रतापनारायण बार २ ग्राहकों को पुकारते, रिझाते, कर्तव्य का ध्यान दिलाते, डांटते फटकारते पर 'नादिहंद' 'जमामार' 'ब्रह्मघाती' ग्राहकों और पाठकों पर कोई असर नहीं होता। कई बार पत्र बन्द करने की धमकी दी, पर सब बेकार । एक बार मुंझलाकर नादिहंद ग्राहकों को आशीर्वाद दिया- खुसी रही जजमान, नैन ये दोनों फूटें—जिसमें कोई समाचार पत्र देखने को जी न चाहे.. ... ... .."राह चलत गिर पड़ी दांत बत्तीसी टूटें'-जिसमें तकाजा करने पर खीस काढ़ के 'सुध नहीं रहती' न कहो। आखिर आर्थिक कठिनाइयों से लाचार होकर प्रतापनारायण जी ने सात वर्ष बाद पत्र को बंद करने का निश्चय कर लिया और अंतिम संभाषण' शोषक संपादकीय में इसकी सूचना भी दे दो। पर खड्गविलास प्रेस बांकीपुर के मालिक बाबू रामदोन सिंह की सहायता से 'ब्राह्मण' को नवजीवन मिल गया। उनके खड्गविलास प्रेस ने आठवें खंड के प्रथमांक से 'ब्राह्मण' के प्रकाशन का सारा भार अपने सिर ले लिया। पत्र की पृष्ठ संख्या बढ़ गई और उसमें कुछ न कुछ नियमितता भी आई पर कुछ ही दिनों बाद संपादक की बीमारी के कारण फिर गड़बड़ी होने लगी। नवे वर्ष के कई मंकों में संस्कृत अथवा बंगला की रचनाओं के अनुवाद मात्र हैं। 'ब्राह्मण' कब तक निकलता रहा इसका ठीक पता नहीं है। हमें नवें वर्ष के बारहवें अंक ( जुझाई ह० सं० ९, सन् १८९४ १० ) तक की प्रति देखने को मिली है। इसो अंक मे एक प्रकाशकीय सूचना छपी है कि 'अब 'ब्राह्मण'का आकार प्रतिमास पांच फार्म रहेगा' । वार्षिक चंदा भी बढ़ा कर १=) कर दिया गया है। पं० प्रतापनारायण की मृत्यु जुलाई सन् १८९४ में हुई, अतः उनके संपादकत्व में निकलने वाला यही अंतिम अंक है इतना तो निश्चित है । सुनते हैं मिश्र जी बी मृत्यु के बाद भी कुछ दिनों तक किसी तरह 'ब्राह्मण' चलता रहा । ___ यहाँ कुछ ऐसी सूचनाएं, टिप्पणियाँ, पद्य और गद्य-लेख संकलित किये गये हैं जिनसे 'ब्राह्मण' की स्थिति, स्वभाव और संकटापन्न आर्थिक अवस्था का बहुत कुछ सीधा परिचय मिल जाएगा। इस सम्बन्ध में 'ग्रन्थावली' के लेख नं० १५ और २७ आदि भी पठनीय हैं। -संपादक