पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५३९

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परिशिष्ट 'ब्राह्मण' : एक परिचय भारतेंदु युग के पत्रों में कानपुर के 'ब्राह्मण' का अपना निराला रंग है। इस क्षीण-कलेवर पत्र में कोई बनाव-चुनाव न होने पर भी कुछ ऐसा बाँकपन है जो सजा पाठक को तुरंत अपनी ओर खीच लेता है। उसकी हर टिप्पणी, लेख और कविलर में निपट सरलता, अनगड़पन और बेहद जिन्दादिली का मेल एक खास असर पदा करता है। यह रायल आठपेजी साइज में छपता था और इसमें बारह पृष्ठ रहते थे। पहला अंक नामी प्रेस कानपुर से बहुत मामूली कागज पर लीथो से छपा था। बाद में टाइस में मुद्रित होने लगा। अपने ९-१० साल के जीवन में इसे कई प्रेसों का चक्कर काटना पड़ा। दूसरे बंक से नवे तक बनारस के हरिप्रकाश यत्रालय में छपा। बाद को परि- स्थितिवश क्रमशः शुभक्तिक प्रेस शाहजहांपुर, मुंशी गंगाप्रसाद वर्मा एण्ड ब्रदर्स प्रेस लखनऊ, भारतभूषण प्रेस शाहजहांपुर, शुभचिंतक प्रेस कानपुर, हनुमत् प्रेस वाला- कांकर में छपा और अन्त में खड्गविलास प्रेस बांकीपुर से निकलने लगा। 'ब्राह्मण' का सिद्धांत-वाक्य था-'शत्रोरपिगुणावाच्या दोषावाच्यागुरोरपि ।' इसके अतिरिक्त पहले पृष्ठ पर भर्तृहरि के एक श्लोक का हिंदी अनुवाद इस रूप में छपता रहा- नीतिनिपुण नर धीर वीर कछु सुजस कहो किन । अथवा निंदा कोटि करो दुर्जन छिन ही छिन । संपतिहू चलि जाहु रहो अथवा अगणित धन । अहिं मृत्यु किन होहु होहु अथवा निश्चल तन । पर न्यायवृत्ति को तनत नहिं जो विवेक गुण ज्ञाननिधि । यह संग सहायक रहत नित देत लोक परलोक सिधि ॥ कई वर्षों बाद अनुवाद के स्थान पर मूल श्लोक छपने लगा- निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वास्तुवन्तु । लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा। न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदनधीगः ।। 'ब्राह्मण' के उद्देश्य का पता उसके पहले अंक में प्रकाशित 'प्रस्तावना' शीर्षक संपादकीय से अच्छी तरह लग जाता है । ( दे १० ५१६ ) ३३