पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५२६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

५०२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली अपेक्षा जितना अधिकार और सामर्थ्य स्त्रियों का होता है उतना ही सृष्टि के मध्य ईश्वर के उपरांत रुपए पैसे को है। अतः जो कोई इस के संबंध में सावधान नहीं रहता उस के द्वारा उस के संबंधियों के निर्वाह में कठिनता पड़ती है और इसी कारण से जिसे लोग दो एक बार जान लेते हैं कि धन के विषय में स्वच्छ नहीं है, उस के साथ सहानुभूति रखते हुए हिवकते हैं । और ऐसी दशा में प्रायः आवश्यकता के अवसर पर शु.लोचनत्व कर जाते हैं अथवा नियत काल के उपरांत सब शील संकोच छोड़ कर अपने द्रव्य की पुनः प्राप्ति के उपाय में कटिबद्ध होते हैं। विचार कर देखो तो ऐसा करने में उनका दोष नहीं है। यदि न करें तो अर्थ संकोच के द्वारा कष्ट एवं हानि सहनी पड़े अथच करने में ग्रहीता को क्लेश होता है । यद्यपि वह क्लेश न्यायविरुद्ध नहीं है पर है तो दुःख ही, जिस से बचने में सचेष्ट रहना बुद्धिमानों का मुख्य कर्तव्य है । इसलिए जिन्हें यह सच्ची इच्छा हो कि हमारे द्वारा दूसरों को और दूसरों के द्वाग हम को आंतरिक वा शारीरिक पीड़ा न हो, उन्हें उचित है कि एतद्विपयिणी असावधानता से सदा सर्वभावेन दूर रहा करें। इस योग्यता के प्राप्त करने की आरंभिक रीति यह है कि किसी दशा में व्यय को आय से अधिक न होने दें, भोजन वस्त्र और गृह सामग्री आदि में किसी की रीस न करें, निर्वाहोपयोगी वस्तुओं को व्यय करते समय उनको चमक दमक पर न रीझ कर स्वल्प मूल्य और पुष्टता पर अधिक ध्यान रक्खें, किप्ती मिथ्या प्रशंसक की बातों में आ कर अथवा धनवानों की बराबरी वा बराबर वालों के साथ अहमहमिका कर के कभी अपने वित्त से बाहर धन न उटावे, किसी को सहायता करने को जी चाहे, वा कोई आत्मीय व्यकि अनुरोध करे तो भी सामर्थ्य से अधिक व्यय न होने दें। ऐसी २ युक्तियों का अभ्यास बनाए रखने से साधारण आवश्यकताओं के लिये धन की न्यूनता कदापि न सतावैगी, क्योंकि यह बुद्धिमानों का अचल सिद्धांत है कि जो किसी पदार्थ को व्यर्थ नहीं खोता वह समय पड़ने पर उम के लिये दुःखित भी नहीं होता। हां, यदि ऐसी ही आवश्यकता आ पड़े कि किसी से मंगनी मांगे बिना संभ्रम की रक्षा कठिन जंचती हो, तो जिस से धन वा कोई पदार्थ ले, उसे ठीक समय पर लौटा देने का पूरा विचार रखें, वरंच मांगने के समय फेर देने का काल ऐसा ही नियत करे कि कुछ पूर्व ही वचन की सत्यता दृढ़ सम्भव हो। यदि किसी बड़े ही भारी विशेष कारण से मध्य में तनिक भी विलंब देख पड़े तो स्पष्ट रूप से दाता को विनयपूर्वक समाचार दे दें। इस रीति से मर्यादा बनी रहती है, नहीं तो यदि विवादजनित विषाद न भी झेलने ण्डै तो भी "व्यौहरे को राम २ जम का संदेशा" इस कहावत का उदाहरण तो अवश्य ही बनना पड़ता है, अथवा जीवन का कुछ वा बहुत भाग निन्दनीय एवं निलंज्ज दशा में बिताना पड़ता है, जो सजनों के पक्ष में महा दूषित है। इसी प्रकार अपना कोई पदार्थ वा धन का कुछ भाग उधार की भांति केवल उन्हीं लोगों को दे, जिन से ठीक समय पर फेर पाने का दृढ़ निश्चय हो अथवा लेते हुए संकोच वा दया बाधा न करे। यदि किसी ममता- पात्र को कुछ देने की आवश्यकता जान पड़े, तो केवल इतना हो दे, जितने को समझ