पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५१५

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सुचाल-शिक्षा]
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सुचाल-शिक्षा ] धारण करके अपनी बुद्धिमानी का परिचय देते हैं । इसलिए उचित यही है कि जो लोग किसी बात में अपने से श्रेष्ठ हैं, और हमारे नम्र भाव का आदर करते हैं, उनके सामने तो अवश्य नम्र ही बना रहे, सो भी वही तक, जहां तक अपनी स्वरूप हानि की संभा- वना न हो, किन्तु सर्वसाधारण के सामने वेष वाणी और चेष्टा मात्र में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखना ही श्रेयस्कर है, और किसी समय कैसी ही दशा में यह विवारना कदापि योग्य नहीं है कि हम कुछ भी नहीं हैं, अथवा हमसे कुछ भी नहीं होना। जो लोग इस प्रकार के विचार को हृदय में स्थान देते हैं, वे अपनी बात्मिक शक्ति को निर्बल कर देते हैं, और दूसरों की दृष्टि में अपना महत्व ही नहीं खो बैठते, वरंच प्रत्येक धृष्ट और दुराचारी को स्वेच्छानुकूल आचरण करने में साहसी बनाते हैं, अथच ऐसी अवस्था में उत्साह के मार्ग को कंटकावरुद्ध कर बैठते हैं, जो सब प्रकार की उन्नति का परम साधन है । अतः हम अपने पाठकों को सम्मति देते हैं कि कभी किसी दशा में अपने को किसी प्रकार तुच्छ म समझें, वरंच महात्माओं के इस कथन पर दृढ़ रहें कि जगत् के लोग उसी को प्रतिष्ठा करते हैं जो स्वयं अपनी प्रतिष्ठा करना बानता है । और वि वार कर देखिए तो बितने बडे २ उनमोत्तम कीतिकारक कार्य हैं, सब मनुष्यों ही के द्वारा सम्पा- दित होते हैं, फिर हम क्या मनुष्य नहीं है वा कुछ कर नहीं सकते ? यदि हमारी वर्त- मान-विद्या बुसि बल धनादिक हमे शीघ्र उच्च श्रेणी पर पहुंचाने में पुष्कल न हों, तो भी श्रम साहस और धर्य के साथ हम कुछ काल में अथना अभीष्ट लाभ करने योग्य हो सकते हैं। सो हमी क्या, सभी प्रसिद्ध पुरुषों का यही तार है। किसी ने एक दिन में कोई बड़ा काम नहीं कर लिया वैसे ही हम भी न कर सकें तो क्या हानि है ? जब सभी के लिए श्रेष्ठताप्राप्ति का मार्ग एक ही है तो फिर हमी क्यों न कहें कि "जिस तरह सब जहान में कुछ हैं । हम भी अपने गुमान मे कुछ हैं ।" यहां पर बहुन ग यह शंका कर सकते हैं कि इस प्रकार के विचार हृदयस्थ करना अहंकार का उत्पादक है और अहंकार को प्राचीनों ने दूषित अहंकार का दूपणीय यह रूप है कि हम किस बात में अपने बरा- बर किसी को न समझें, और मान्य पुरुषों का उचित आदर न करके सब छोटे बड़ों को रुष्ट कर दें, किन्तु जब हम ऐसा नहीं करते, वरंच सबका सम्मान करते हुए अपना संभ्रम भी रक्षित रखते हैं, तो कोई बुराई नहीं है । जो लोग यह समझते हैं कि समर्थ लोगो के सम्मुख आत्मगौरव का विचार रखने से स्वार्थसाधन में बाधा पहने का भय रहता है, वहां चाटुकारिता ही से काम निकलता है, सो उनकी यह समझ कीक नहीं है। माना कि तुच्छ प्रकृति के सामर्थ्यवान् चाटुकारो को ठकुर सुहाती बातो से प्रसन्न होते हों, पर सन्देह नहीं है कि स्वार्थ साधन के निमित्त बात-बात में "हां जी, हां जी" करने वालों का भेद खुले बिना नहीं रहता और भेद खुलने पर प्रतिष्ठा जाती रहती है, एवं ऐसो दशा में प्राप्ति की आशा भी उतनी नहीं रहती जितनी गणनीय पुरुषों को होनी चाहिए, और यदि हुई भी तो लोक निन्दा से पीछा छूटना महा असम्भव है, जो सज्जनों के पक्ष में अतीव घृणित है, जैसा किसी नीति निपुण का सिद्धांत है कि 'जियत हंसी नो जगत्