पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५०८

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आठवां पाठ मिताचरण जिस वर्ष वृष्टि नहीं होती, अथवा बहुत ही स्वल्प होती है, उस वर्ष अकाल पड़ने की सम्भावना हुआ करती है। यों ही जब अतिवृष्टि होती है तब भी बहुत से खेत बह जाते हैं, बहुत से सड़ जाते हैं। इस से अन्न की उत्पत्ति में बाधा पड़ती है। यह प्राकृतिक नियम हमें सिखलाता है कि जो बात मर्यादाबद्ध नहीं होती वह कष्ट का हेतु होती है। यदि हम परिश्रम करना छोड़ दें तो कुछ ही काल मे आलसी होकर और धन बल मान इत्यादि खो कर नाना जाति के रोग शोकादि का भाजन बन बैठेंगे अथच अपनी शक्ति से अधिक श्रम करें तो भी शरीर शिथिल एवं मन खेदित होने कारण किसी काम के न रहेंगे। भोजन यदि स्वादिष्ट होने से भूख से अधिक खाएं तो मालस्य और अनपच के कारण भांति २ के कष्ट सहने पड़ेंगे तथा अत्यन्त थोड़ा भोजन करें तो भी निर्बलताजनित उपाधिसमूह झेलने पड़ेंगे। इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि जो काम करे परिमाण के भीतर ही करे क्योंकि जीवन को सुविधा- सम्पन्न बनाने के लिए जैसे सभी बातों का अभ्यास रखना आवश्यक है, वैसे ही यह स्मरण रखना भी प्रयोजनीय है । अति किसी बात की अच्छी नहीं होती है। परिणाम मे उस के द्वारा दुःख ही होता है। जिन बातों को सारा संसार एक स्वर से उत्तम कहता है उन की प्राप्ति के लिए भी यदि परिमिति ( सीमा) का त्याग कर दिया जाय तो क्लेश और हानि हुए बिना नहीं रहती। विद्या, धन अथवा धर्म के संचय करने में जितना श्रम किया जाय उतनी ही कल्याण को वृद्धि होती है, किन्तु साय हो यह भी स्मर्तव्य है कि यदि हम महाधुरन्धर पंडित, अगणितसम्पदासम्पन्न परम धाम्मिक बनने की धुन में आकर आहार विहारादि के नियमों की ओर से ध्यान हटा लें, तो थोड़े ही दिनों में स्वास्थ्य से रहित होकर पढ़ने लिखने के काम के न रहेंगे वा पढ़ा पढ़ाया निष्फल हो जायगा। कृषि वाणिज्यादि के लिए दौड़ने धपने की शक्ति न रहेगी अथवा संचित धन का उपभोग दुष्कर हो जायगा, भलाई बुराई का ययेष्ट निर्णय न कर सकेंगे, वा जिन सत्कार्यो के करने को जी छटपटायगा, वे हाथ पावों से होने कठिन हो जायंगे, क्योंकि जिस अंग वा पदार्थ से अत्यधिक काम लिया जाता है वा नहीं लिया जाता, वह सामर्थहीन हो जाता है और आवश्यकता के समय काम नहीं दे सकता और इसी से किसी की दशा सदा एक सी नहीं रहती इसलिए समय २ पर सभी कुछ करने की आवश्यकता पड़ती है तथा उस की पूर्ति के उपयुक्त शक्ति के अभाब से यदि वह न हो सका तो बहुत काल तक क्लेश व हानि अथवा अपकीर्ति सहनी पड़ती है। जो लोग सम्पत्ति की दशा में धन का भोग वा दान अनियमित रूप से करते हैं, उन्हें जब उदारताप्रर्शन का अवसर पड़ता है तो उचित व्यय करने के