पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४९९

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सुचाल-शिक्षा]
४७५
 

सुचाल-शिक्षा ४७५ वाक्य मुखाग्र हो जाता है कि, 'क्या करें, छुट्टी हो नहीं मिलती, नहीं तो क्या कुछ कर नहीं सकते !' बस यों ही कहते २ विद्या, बल, धन, साहस, प्रतिष्ठादि सब हुई भी तो जाती रहती है और न हुई तो उपार्जन करने की छुट्टी कहाँ ? यदि पहिले अभ्यास के यश पोई सद्गुन वा सत् पदार्थ बना भी रहे तो तदुपयोगी अन्यान्य गुण पदार्थादि के के अभाव से उसका होना न होना बराबर हो जाता है। और ऐसी दशा में जौन सा रोग दोष, दुःख दरिद्र दुर्गति न दवा ले सोई थोड़ा है । यदि परमेश्वर की दया से कोई व्यतिक्रम न भी हुआ तो भी ऐसों के जीवन से यह आशा करनी दुराशा मात्र है कि कोई भी ऐसा वृहत कार्य हो सकेगा जो सत्पुरुषों के लक्षण में गणनीय हो ! इसलिए हमारे पाठकों को समझ रखना चाहिए कि घटिका अर्थात् घड़ी का दूसरा नाम दण्ड है, और दण्ड कहते हैं ताड़ना अर्थात् डंडे ( लाठी ) को। इसका अभिप्राय यह है कि जिन घड़ियों घंटों को हम साधारण सा समझते हैं वे वास्तव में कालपुरुष के डंडे हैं । जग- नियंता जगदीश्वर इन्हीं के द्वारा समस्त संसार का प्रबन्ध करता है। जिस प्रकार सांसारिक राजाओं के राजकार्य दण्ड ( सजा वा सोने चांदी लकड़ो आदि का दंडा ) से चलते हैं, यों हो सर गनाओं के अधिराज परमेश्वर के संसारराज्य का काम इन दण्डों के द्वारा संपादित होता है। कोई वैसा ही बलो, धनो मानी, विद्वान् क्यों न हो इन दण्डों की गति का अवरोध नहीं कर सकता। जिन प्राकृतिक नियमों के लिए जो काल निश्चित हैं उनमें कोई एक दण्ड कैसा, एक विपल का भी घटाव बढ़ाव नहीं कर सकता। इसी से प्रसिद्ध है कि काल बड़ा बली है। वह बात को बात में कुछ का कुछ कर दिखाता है और किसी का कुछ बस नहीं चलता। भला ऐसा बली जिसके विरुद्ध हो अथवा यों कहो कि जो ऐसे बली का अनादर करे अर्थात् उसके अनुकूल आचरण न करे, उसके अनिष्ट का भी कुछ ठिकाना है ? जब कि साधारण राजदंड एवं काष्ठदंड हमारे प्राण तक ले सकते हैं तो ईश्वरीय दंड प्रतिकूलता की दशा में क्या कुछ न कर सकेंगे। इसलिये पूर्ण प्रयत्न के साथ इन्हें अपने अनुकूल ही रखना उचित है । जीवन- दाता ने कृपा करके जितने दंड हमारे हाय में सौप दिए हैं, उन्हें यदि हम उचित रीति से काम में लाने का अभ्यास रक्खें, तो वे सब कायिक बाचिक मानसिक अरिष्टों को चूर्ण कर सकते हैं, नहीं तो अपने हाथ पांव शिर इत्यादि को तोड़ बैठना बना बनाया है। कुछ दिन कुछ न कीजिए तो कुछ ही दिन में कुछ करने को जी न चाहेगा और होते २ कुछ भी कर सकने की शक्ति न रहेगी । इससे सदा सब प्रकार समय की महिमा का विचार रखना ही श्रेयस्कर है। इसको रोति यह है कि पहिले तो नित्यकर्मों का समय नियत कर लेना चाहिए । जब तक बड़ी ही आवश्यकता एवं विवशता न हो तब तक सोने जागने, खानेपीने, कही जाने आने आदि के समय में एक मिनिट का गड़बड़ न होने पावै । जब इसका अभ्यास पड़ जाएगा तब प्रत्यक्ष देखने में आवैगा कि मन प्रसन्न, तन फुर्तीला और बुद्धि तीब्र होती है तथा प्रतिदिन इतना उचित अवकाश प्राप्त हो सकता है कि हम जो कुछ करना चाहैं उस योग्य सहारा पा सकते हैं। उस काल मे भी यह ध्यान रखना चाहिए कि व्यर्थ एक पल न बीतने पावै, कोई न कोई