पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४७९

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शैशव सर्वस्व]
४५५
 

शैव सर्वस्व ] ४५५ जिस प्रकार अन्य धातु पाषाणादि मूर्तियों का नाम भी रामनाथ, बैद्यनाथ, आनंदे- श्वर, खेरेश्वरादि होता है वैसे ही इस अक्षरमयी मूर्ति के भी कई नाम है-हृदयेश्वर, मंगलेश्वर, भारतेश्वर इत्यादि, पर मुख्य नाम प्रेमेश्वर है अर्थात् प्रेममय ईश्वर ! इनका दर्शन भी प्रेमचक्ष के बिना दुर्लभ है । जब अपनी अकर्मण्यता और उनके उपकारों का ध्यान जमेगा तब अवश्य हृदय उमड़ेगा और नेत्रों से अश्रुधारा बह चलेगी उसी धारा का नाम प्रेम गंगा है। इन्ही प्रेम गंगा के जल से स्नान कराने का महात्म्य है, हृदय कमल चढ़ाने का अक्षय पुण्य है। यह तो इस मूर्ति की पूजा है जो प्रेम बिना नहीं हो सकती। पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जब मन में प्रेम होगा तभी संसार के यावत् मूर्तिमान तथा अमूर्तिमान पदार्थ शिवमूर्ति अर्थात् कल्याण का रूप निश्चित होंग । नहीं तो सोने और हीरे की भी मूर्ति तुच्छ है। यदि उस से स्त्री का गहना बनवाते तो उस की शोभा होती, तुम्हें सुख होता, विपत्ति में काम होता, पर मूर्ति से तो कुछ भी न होगा। फिर मृत्तिकारि का क्या कहना है, वह तो तुच्छ हई हैं। केवल प्रेम ही के नाते ईश्वर हैं नहीं तो घर की चक्की से भी गए बीते ! यही नहीं, प्रेम के बिना ध्यान ही में क्या ईश्वर दिखाई देगा ? जब चाहो आँख मूंद के अंधे की नकल कर देखो, अंधकार के सिवाय कुछ सूझे तो कहना ! वेद पढ़ने से हाथ मुंह दोनों दुखेंगे । अधिक श्रम करोगे, दिमाग में गरमी चढ़ जायगी। अस्तु, इन बातों के बढ़ाने से क्या है, जहां तक सहृदयता से विवारिएगा वहाँ तक यही सिद्ध होगा कि प्रेम के बिना वेद झगड़े की जड़, धर्म बे सिर पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल और मुक्ति प्रेत की बहिन है ! ईश्वर का तो पता ही लगता कठिन है। ब्रह्म शब्द ही नपुंसक अर्थात् जड़ है ! उसकी उपमा आकाश से दी जाती है---'खम्ब्रह्म' । और आकाश है शून्य । पर हां यदि मनोमंदिर में प्रेम का प्रकाश हो तो सारा संसार शिवमय हैं, क्योकि प्रेम ही वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात् कल्याण का रूप है ! जब शिवमूर्ति समझ में आ जायगी तब यह भी जान जायंगे कि उस की पूजा जो जिस रीति से करता है अच्छा ही करता है। तो भी शिवपूजा की प्रचलित पद्धति का अभिप्राय सुन रखिए जिस से जान जाइए कि मूर्तिपूजन कोई पाप नहीं है। शिवजी की पूजा में सब बातें तो वही हैं जो सब देवताओं की पूजा में होती हैं और सब प्रतिमा पूजक समझ सकते हैं कि स्नान चंदन पुष्प घृत दीपादि मंदिर की शोभा और सुगंध प्रसारण के द्वारा चित्त की प्रसन्नता के लिए हैं जिसमें ध्यान करती बेला मन आनंदित रहे, क्योंकि मैले कुचले स्थान में कोई काम करो तो जी से नहीं होता । नैवेद्येत्यादि इसलिए हैं कि हम अपने इष्ट को खाते पीते सोते, जागते सदा अपने साथ समझते हैं। स्तुति प्रार्थनादि उनकी महिमा और अपनी दीनता का स्मरण दिलाने को हैं। पर शिवपूजा में इतनी बातें विशेष है-एक तो मदार के फूल, धतूरे के फल इत्यादि कई एक ऐसे पदार्थ चढ़ाए जाते हैं जो बहुधा किसी काम में नहीं आते। इस से यह बात प्रदर्शित होती है कि जिस को कोई न पूछे उसे विश्वनाथ ही स्वीकार करते हैं । अथवा उन की पूजा के लिये ऐसी वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है जिन में धन की पावश्यकता हो, क्योंकि वे