पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४७३

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शैशव सर्वस्व]
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अब सव] न भी माने तो भी यह मानना पड़ेगा कि हमारी अपेक्षा उनसे और ईश्वर से अधिक संबंध था। फिर हम क्यों न कहें कि यदि उस परात्पर का कुछ अस्तित्व है तो रंग पही होगा क्योंकि उसके निज के लोग कई एक इसी रंग ढंग के हैं। अब माकारों का विचार कीजिए तो अधिकतः शिवमूर्ति लिंगाकार होती है जिसमें हाथ पांव मुख नेत्र कुछ नहीं होते । सब मूर्तिपूजक कहते हैं कि हम प्रतिमा को स्वयं ब्रह्म नही मानते, न यही मानते हैं कि यह उसकी यथातथ्य प्रतिकृति है। केबल परमदेव की सेवा करने तथा अपना मन लगाने के लिए एक संकेत तथा चिह्न नियत कर लेते हैं। यह बात आदि में शैवों के ही घर से निकली है । क्योंकि लिंग शब्द का अर्थ ही चिह्न है और सब भी यही है। जो वस्तु बाहरी नेत्रों से देखी नहीं जाती उसको ठीक २ मूर्ति ही क्या ? मानंद की कसी मूर्ति, दुःख को कैसी मूर्ति, राम रागिनियों की कसी मूति ? केवल मनः कल्पना द्वारा उसके गुणों का कुछ २ द्योतन करने के योग्य कोई संकेत । बस ठीक इसी प्रकार ज्योतिलिंग है। सृष्टिकर्तृत्व, अचित्यत्व, अप्रतिमत्वादि कई बातें लिंगाकार मूर्ति से ज्ञात होती हैं। ईश्वर कैसा है, यह बात पूर्ण रूप से कोई नहीं कह सकता । अर्थात् उसकी सभी बातें गोलमाल है। बस यही बात गोल मठोल ठीक मूति भी सूचित करती है। यदि 'न तस्य प्रतिमास्ति' इस वेद वचन का यही अर्थ है कि ईश्वर के प्रतिमा नहीं है तो इसका ठीक रूपक शिवलिंग ही है क्योंकि जिस्में हस्तपादादि कुछ नहीं है उसे प्रतिमा कौन कहेगा! पर यदि कोई मोटी बुद्धि वाला कहे कि यदि कुछ अवयव ही नहीं है तो यही क्यों नहीं कहते कि कुछ नही ही है। तो हम उत्तर दे सकते हैं कि पाखें हों तो देखो, फिर धर्म से कहना कि कुछ है अथवा नहीं है । तात्पर्य यह है कि 'कुछ है' एवं 'कुछ नहीं है' यह दोनों बातें ईश्वर के विषय में न हो कही जा सकें न नही कहते बने, और हां कहना भी ठीक है तथा नहीं कहना भी ठीक है-'का कहिए कहते न बने कछु है कि नहीं कछु है न नहीं है' । क्योंकि ईश्वर तो मन वचनादि का विषय ही नहीं है। वहाँ केवल अनुभव का काम है। इसी भांति शिवमूर्ति भी समझ लीजिए। कुछ नहीं है वो भी सभी कुछ है ! वास्तव में यह विषय ऐसा है कि जितना सोचा समता कहा जाय उतना ही बढ़ता जायगा, बकने वाला जन्म भर बके पर सुनने वाला यही जानेगा कि अभी श्रीगणेशाय नमः हुई है। इसी से महात्मा लोग कह गए हैं कि 'ईश्वर को वाद में न हुँदो वरंच विश्वास में'। इसलिये हम भी उत्तम समझते हैं कि सावयव मूर्तियों के वर्णन की ओर झुकें । क्योंकि यदि पाठकगण विश्वास के साथ भबन करेंगे तो आप उस अरूप का रूप समझने लगेंगे। हम रूपवान के उपासक हैं, हमें अरूप से क्या । हमारे लिए तो उन्हें भी रूप धारण करना पड़ता है। जानना चाहिए कि जो जैसा होता है उसकी कल्पना भी वैसी ही होती है। यह संसार का स्वाभाविक धर्म है। जो वस्तु हमारे पास पास है उन्हीं पर हमारी बुद्धि