पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४६३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'इस सादगी ( मूर्खता ) पे कौन न मर जाय ऐ खुदा लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं' हमारे उर्दू सहयोगी 'फतेहगढ़ पंच' साहब बहादुर ने १४ सितंबर के 'उर्दू नागरी' मामक लेख द्वारा उपर्युक्त और का ठीक २ अनुभव कराया। धन्य है ! वाह री बुद्धि ! हमें उनके मुंह को दुर्गधि का यथावत् वर्णन करते घिन आती है, पर क्या करें, इतना उपदेश किए बिना नहीं रहा जाता कि 'पंच' की एडिटरी चिरकीन के शागिर्दो का काम नहीं है । वीमत्स और हास्य रस में बड़ा अन्तर होता है। यह उर्दू बीबी के सफरदाई जब तक किसी नागरी देवी के भक्त से न सीख लेंगे तब तक लेख प्रणाली से सपा अज्ञात रहेंगे। छि: ! जिन शब्दों से मनुष्य मात्र यदि बवन नहीं कर देते तो थूक अवश्य मारते हैं उनसे सिवाय संपादक साहब तथा थोड़े से औघड़ों के हंसेगा कौन ? हो ऐसी बुद्धि पर हंसे तो हमे जो लिखाती है 'यद्यपि बुद्धिमती पश्चिमोत्तरदेशीय गवर्नमेंट ने उर्दू ही का प्रचार पसंद किया है और नागरी को त्याग दिया है परंतु हमारे सहयोगी 'मशुर' अखबार' ने फिर गड़े को उखाड़ कर प्रिय पाठकों के मस्तिष्क को दुर्गधित कर दिया, विशेषतः इस समय में जब कि बिशूचिका की अधिकता है'। हम अपनी गवर्नमेंट के अनेक बातों में अनुगृहीत हैं पर उर्दू अक्षरों से प्रजा को बो हानि है उसे देख कर बड़े शोक एवं आक्षेप से कहना ही पड़ता है कि इस विषय में निश्चय हमारी गवर्नमेंट, यदि सचमुच हमारो हितैषिणी है तो, चूकती है । हिंदी अक्षरों के बिना हिंदुस्तानी प्रजा का दुःख न टला है न टलेगा। जो लोग गवर्नमेंट की उर्दू के विषय में प्रशंसा करते हैं वे प्रभा का गवर्नमेट से अहित कराया चाहते हैं क्योकि उसके प्रजा केवल शोन काफ वाले ही नहीं हैं बरंच वे भोले भाले ग्रामवासी भी हैं जो नागरी के सिवाय कुछ नहीं जानते । उन्ही की संख्या भी अधिक है । और उन्हीं को सकार दरि से काम भी अधिक रहता है । 'मथुरा अखबार' ने यदि इन दिनों फिर नागरी को उत्तमता का सरि को स्मरण दिलाया तो बहुत ही अच्छा किया। फतेहगढ़ पंच' व्यर्थ उबलते हैं जो उस पर आक्षेप करके अपनी बुद्धि का परिचय देते हैं। हम जानते हैं उर्दू ऐसे जालमयी विषवृक्ष को जड़ से उखाड़ के फेंक देने की चेष्टा ही सर्वहितैषिता है । अ० ग० पं० हैजे के दिनों में ऐसे कुत्सित पदार्थों का गाड़ रखते होगे पर उनको किसी हम ऐसे डाक्टर से बुद्धि के नेत्रों की फुल्ली चिरवा डालनी चाहिए जिससे सूझ पड़े कि पुरानी दुर्गन्धि वस्तु और भी रोग बढ़ाती है। यह दुर्गन्धि ही दिमाग में चढ़ जाने का फल है जो लिख मारा कि 'नागरी में लफ्ज मुर्तजा नही लिखा जा सकता है'। भला किसी पंडित से, जो उर्दू भी जानता हो, पढ़ाइए तो मुतना है कि नहीं ? यह तो उर्दू सिखाई का गुण है जिसमें नुक्ता रहते भी 'प्रीति' और 'प्रेत', 'गोह में' और 'गूह में' इत्यादि में बड़े २ मौलवी फरक नहीं कर सकते। दूसरी भाषा का शब्द दूसरे अक्षरों में न बने तो कोई बड़े आक्षेप का विषय नहीं है पर उर्दू बीबी के चेले किस बिरते पर नखग करते है जिसमें उर्दू ही के शब्द कुछ के कुछ पढ़े जाते हैं । इस विषय