पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४४५

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धोखा]
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धोखा ] ४२१ असंभव है, और जो जिससे बच नहीं सकता उस का उस की निंदा करना नोतिविरुद्ध है । पर क्या कीजिए, कच्ची खोपड़ी के मनुष्य को प्राचीन प्राज्ञ गण अल्पज्ञ कह गए हैं, जिसका लक्षण हो है कि आगा पीछा सोचे बिना जो मुंह पर आवे कह डालना और जो जी में समावे कर उठना, नहीं तो कोई काम वा वस्तु वास्तव में भलो अथवा बुरी नहीं होती, केवल उसके व्यवहार का नियम बनने बिगड़ने से बनाव बिगाड़ हो जाया करता है। परोपकार को कोई बुरा नहीं कह सकता, पर किसी को सब कुछ उठा दीजिए तो क्या भीख मांग के प्रतिष्ठा अथवा चोरी करके धर्म खोइएगा वा भूखों मर के आत्महत्या के पाप भागी होइएगा ! यों ही किसी को सताना अच्छा नहीं कहा जाता है, पर यदि कोई संसार का अनिष्ट करता हो, उसे राजा से दंड दिलवाइए वा आप ही उस का दमन कर दीजिए तो अनेक लोगों के हित का पुण्यलाभ होगा। _____घो बड़ा पुष्टिकारक होता है, पर दो सेर पी लीजिए तो उठने बैठने की शक्ति न रहेगी । और संखिया, सीगिया आदि प्रत्यक्ष विष हैं, किंतु उचित रीति से शोध कर सेवन कीजिए तो "हुत से रोग दोष दूर हो जायंगे। यही लेखा धोखे का भी है । दो एक बार धोखा खा के धोखे बाजों की हिकमत मीख लो, और कुछ अपनी ओर से झपको फुदनी जोड़ कर 'उसी की जूती उसी का सिर' कर दिखाओ तो बड़े भारी अनुभवशाली बरंच 'गुरु गुड़ हो रहा चेला शक्कर हो गया' का जीवित उदाहरण कहलाओगे । यदि इतना न हो सके तो उसे पास न फटकने दो तो भी भविष्य के लिये हानि और कष्ट से बच जाओगे । यों ही किसी को धोखा देना हो तो इस रीति से दो कि तुम्हारी चालबाजी कोई भांप न सके, और तुम्हारा बलिपशु यदि किसी कारण से तुम्हारे हथखंडे ताड़ भी जाय तो किसी से प्रकाशित करने के काम का न रहे । फिर बस अपनी चतुरता के नधुर फल को मूखों के आंसू तथा गुरुघंटालों के धन्यवाद की वर्षा के जल से धो और स्वापूर्वक खा ! इन दोनों रीतियों से धोखा बुरा नहीं है। अगले लोग कह गए हैं कि भादमी कुछ खो के सोखता है, अर्थात् धोखा खाए बिना अक्किल नहीं आती, और बेईमानी तथा नीतिकुशलता में इतना ही भेद है कि जाहिर हो जाय तो बेईमानी कहलाती है और छिपी रहे तो बुद्धिमानी है। हमें आशा है कि इतने लिखने से आप धोखे का तत्व यरि निरे खेत के धोखे न हों, मनुष्य हों तो ममझ गए होगे। पर अपनी ओर से हनना और समझा देना भी हम उचित समझते हैं कि धोखा खा के धोखेबाज का पहिचानना साधारण समझ वालों का काम है । इस से जो लोग अपनी भाषा भोजन, भेष भाव और भ्रातृत्व को छोड़ कर आप से भी छुड़वाया चाहते हों उन को समझे रहिए कि स्वयं धोखा खाए हुए हैं और दूसरों को धोखा दिया चाहते हैं। इससे ऐसों से बचना परम कर्तव्य है, और जो पुरुष एवं पदार्थ अपने न हों वे देखने में चाहे जैसे सुशील और सुंदर हों, पर विश्वास के पात्र