पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४४४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४२. [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली सब लाई केहि काम की'। पर यदि हम ऐसा समझ कर सबसे संबंध तोड़ दें तो सारी पूंजी गंवा कर निरे मूर्ख कहलावे, स्त्री पुत्रादि का प्रबंध न करके उनका जीवन नष्ट करने का पाप मुड़िया ! 'ना हम काहू के कोऊ ना हमारा' का उदाहरण बनके सब प्रकार के सुख सुविधा, सुयश से वंचित रह जावें ! इतना ही नहीं, बरंच और भी सोच कर देखिए तो किसी को कुछ भी खबर नहीं है कि मरने के पीछे जीव की क्या दशा होगी। बहुतेरों का सिद्धांत यह भी है कि दशा किसकी होगी, जीव तो कोई पदार्थ ही नहीं है । घड़ी के जब तक सब पुरजे दुरुस्त हैं, और ठोक ठीक लगे हुए हैं तभी तक उस में खट खट, टन टन आवाज आ रही है, जहाँ उसके पुरजों का लगाव बिगड़ा वहीं म उसकी गति है, न शब्द है। ऐसे ही शरीर का क्रम जब तक ठीक २ बना हुवा है, मख से शब्द और मन से भाव तथा इंद्रियों से कर्म का प्राकट्य होता रहता है, जहां इसके क्रम में व्यतिक्रम हुआ, वही सब खेल बिगड़ गया, बस फिर कुछ नहीं, कैसा जीव ? कैसी आत्मा ? एक रीति से यह कहना झूठ भी नहीं जान परता, क्योंकि जिसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है उसके विषय में अंततोगत्वा यों ही कहा जा सकता है ! इसी प्रकार स्वर्ग नर्कादि के सुख दुःखादि का होना भी नास्तिकों ही के मत से नही, किंतु बड़े बड़े आस्तिकों के सिद्धांत से भी 'अविदितिसुखदुख निविशेष- स्वरूप' के अतिरिक्त कुछ समझ में नहीं आता। स्कूल में हमने भी सारा भूगोल और खगोल पढ़ डाला है, पर नर्क और बैकंठ का पता कही नहीं पाया। किंतु भय और लालच को छोड़ दें तो बुरे कामों से घृणा और सत्कर्मों से रुचि न रख कर भी तो अपना अथच पराया अनिष्ट ही करेंगे । ऐसी २ बातें सोचने से गोस्वामी तुलसीदास जी का 'गो गोचर जहं लगि मन जाई, सो सब माया जानेहु भाई' और श्री सूरदास जी का 'मायामोहिनी मन हरन' कहना प्रत्यक्षतया सच्चा जान पड़ता है । फिर हम नहीं जानते कि धोखे को लोग क्यों बुरा समझते हैं ? धोखा खाने वाला मूर्ख और धोखा देने वाला ठग क्यों कहलाता है ? जब सब कुछ धोखा ही धोखा है, और धोखे से अलम रहना ईश्वर की भी सामर्थ्य से भी दूर है, तथा धोखे ही के कारण संसार का चर्खा पिन्न २ चला जाता है, नहीं तो विच्चर २ होने लगे, बरंच रही न जाय तो फिर इस शब्द का स्मरण वा श्रवण करते ही आप की नाक मौह क्यों सुकुड़ जाती है ? इसके उत्तर में हम तो यही कहेंगे कि साधारणत: जो धोखा खाता है वह अपना कुछ न कुछ गंवा बैठता है, और जो धोखा देता है उसकी एक न एक दिन कलई खुले बिना नहीं रहती है और हानि सहना वा प्रतिष्ठा खोना दोनों बातें बुरी है, को बहुधा इसके संबंध में हो ही जाया करती हैं। इसी से साधारण श्रेणी के लोग धोखे को अच्छा नहीं समझते, यद्यपि उस से बच नही सकते, क्योंकि जैसे काजल की कोठरी में रहने वाला बेदाग नहीं रह सकता वैसे ही प्रमात्मक भवसागर में रहने वाले अल्पसामर्थी जीव का भ्रम से सर्वथा बचा राना