पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४१५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रश्नोत्तर ] निरा-साहब यह है व्यवहार की बातें, इनमें जमाने की परवी किए बिना गुजारा नही पता पर धर्म के काम वेद के विखन करने चाहिए। मूर्ति-पाह! यह एक ही कही, हजरत, जमाना आप को अपनी चाल चलने से रोक नहीं सकता। माप ही अपनी रुचि बिगाड़ डालें तो दूसरी बात है नहीं तो पगड़ी अंगरखा पहिनने वालों को कोई जमाने से निकाल नहीं देता। देशी वस्तु काम में लाने वाले बेइज्जत नहीं समझे जाते । हिंदी और संस्कृत सीखने वाले तथा बाप दादों का धंधा करने वाले भूखों नहीं मर जाते । बल्कि कोई परीक्षा कर देखे तो जान जायगा कि ऐसी चाल से अधिक सुभीता रहता है। लेकिन उन से पाचारी है जो बाबू बनने की लत के पीछे अपनी भाषा भोजन भेष भाव प्रातृत्व की रक्षा का ध्यान नहीं रखते, रुपया अपने हाथों परदेश में फेंकते हैं, बाप दादों और जाति के श्रेष्ठ पुरुषों का उचित आदर नहीं करते बरंच उन्हें मूर्ख और पोप कहने तक में नहीं शरमाते । पर तुर्रा यह है कि इस करतूत पर भी बिना पढ़े वेद मोर धर्म के तत्ववेत्ता ही नहीं देश भर के गुरु बनने पर परे जाते हैं। इतना भी नहीं समझते कि निस विषय का अपने को पूरा ज्ञान न हो उस में पायं २ करना शख मारना है और अपने दोषों को न देख कर दूसरों को दोषी ठहराने की चेष्टा करना निरी निर्ललता है। निरा-यह तो ठीक कहते हो पर यह विषय व्यवहार का है और हम धर्म की चर्चा किया चाहते थे। मूर्ति-व्यवहार और धर्म में भाप भेद क्या समझते हैं ? हमारी समझ में तो बुद्धि और बुद्धिमानी के द्वारा अनुमोदित व्यवहार ही का नाम धर्म है। निरा--सच तो यों हो है पर मोटी भाषा में व्यवहार उन कामों को कहते हैं जिन का संबंध केवल संसार के साथ होता है, जैसे खाना पीना रुजयार करना आदि, और धर्म उन कामों का नाम है जो बात्मा ईश्वर तथा परलोक इत्यादि से संबंध रखते हैं जैसे संध्या पूजा दान आदि । हम इन्हीं के विषय में बातचीत करना चाहते हैं । मूर्ति-यह आपकी इच्छा, पर क्या आप कह सकते हैं कि संध्या इत्यादि कर्म संसार से संबंध नहीं रखते ? जब कि उपास्य देव ही विश्व के सृष्टा गौर स्वामी हैं, उपासक स्वयं संसारी हैं, स्तुति प्रार्थनादि में भी सांसारिक शब्दों का प्रयोग, संसार संबंधिनी वस्तुओं एवं व्यक्तियों की याचनादि की जाती है तो उक्त कम्मो को कोई क्योंकर कह सकता है कि संसार से संबंध नहीं है ? निरा-तो भी ईश्वरीय संबंध में तो संसारी पदापों से बचे ही रहना चाहिए न ? मूर्ति-किस पदार्थ से बचिएगा। संसार में तो जो कुछ है सब ईश्वर ही का है और सब के मध्य वही व्याप्त है। अतः अपना सब कुछ उसी को अर्पण करना तथा उसी का प्रसाद समझना चाहिए कि उस से बचना चाहिए ? और कहाँ तक बधिएगा, शरीर से उसकी माता पालन न कीजिएगा, मन से उस का स्मरण न कीजिएगा, बचन