पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४११

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अलावपरित्र ] ३८७ उत्थापित करने में क्या असमर्थ है ? पर हो,साधारण व्यक्ति के लिये वे ऐसा नहीं करते। ये और उनके भक्त बाजीगर नहीं है कि आपके संतोषार्थ अपने निज कृत्य दिखलाया करें। जब उनके निज के लोगों का काम पड़ता है तब सब कुछ करते हैं। सो इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि प्रल्हाद जी पूरे और सचे पढ़भक्त थे। भगवान के साथ उनका जीवित गंभीर निज संबंध था। फिर ऐसे निज संबंधियों के हितार्थ भगवान क्या कुछ न कर सकते थे, क्या कुछ नहीं करते, क्या कुछ करने को प्रस्तुत नहीं हैं ? किसी नियम की रक्षा के अर्थ निज मित्रों की उपेक्षा करना साधु प्राति के मनुष्य भी उचित नहीं समझते फिर परमेश्वर क्योंकर अपने अनन्य जन के लिये आपके कलित सृष्टिक्रम को लिए बैठे रहते ? परमेश्वर और प्रह्लाद जी के मध्य जो पारस्परिक व्यवहार वा उसके रक्षगार्थ दोनों का परम कर्तव्य ही पही था कि किसी नियमोपनियम की चिता न करके केवल मित्रता का संरक्षण और मित्र का हितान्वेषण करते रहे । वह रीति संसारी मित्रों में भी हुआ करती है और जो कोई उनके इस प्रकार के बर्ताव को हंसने योग्य समझता है वह स्वयं हास्यास्पद होता है फिर उपर्युक्त परम अलौकिक मित्र आपस में जो कुछ करते थे उस पर आक्षेप करने वाले निंदनीय न होंगे? भापके भाग्य में भारत को प्रेम फिलासफी समझना नहीं बदा इससे यह विषय आपको हम पूरी रीति से नहीं समझा सकते । पर यदि आपको यूरप के इहकालिक बड़े २ गक्टरों के निर्णीत सिद्धांत का भी ज्ञान हो तो उसके द्वारा भी प्रह्लाद जी की कथा का विचार करके आप इतना जान सकते हैं कि प्रेम प्रह्लाद जी का स्वाभाविक गुण था जिसका अनुकरण भी संसारी जीवों के पक्ष में महा दुर्लभ है। फिर ऐसे भक्त के लिये परमात्मा क्या कुछ न करता ? सुसभ्य यूरोपीय डाक्टर राजों ने बड़े परिश्रम और अनुभव के उपरांत इस बात को आज जाना है किंतु हम हाफ सिविलाइज्ड इंडियन पोपो के बनवासी फोरफादर्स ( पुरुखा ) अर्थात् पुराणाचार्य सहस्रों वर्ष पहिले से जानते थे। जिस समय हमारे बाबुओं के बाबा आदम शायद पैदा भी न हुए होंगे उस समय से हमारे पुराण बनाने वाले बाबा जानते थे कि गर्भ धारण के समय माता के चित्त में जैसे पुरुष का विशेष ध्यान होता है वैसे ही रूप रंग की संतति उत्पन्न होती है और गर्भधारण से नौ मास सक अर्थात् संतानोत्पत्ति के समय तक जिस प्रकार के भोजन और भाव माता को प्राप्त होते हैं वैसे ही स्वास्थ्य और स्वभाव बालक के होते हैं । इसके प्रमाण और उदाहरण डाक्टरों के ग्रंथों में बहुत से पाए जाते हैं और संसार की रीति है कि जिसके साथ 'बहत दिन से प्रीति होती है या जिसे देख के चित्त आकृष्ट हो जाता है उसका चित्र मन में बन जाया करता है। हमारे पाठकों ने देखा होगा कि बहुत से हिंदू संतान का रंग और आकृति ठीक अंगरेजों की सी है यद्यपि पता लगाने से जान पड़ा है कि उनकी भाता दुश्चरित्रा न थी। भोर यदि ऐसा होता भी तो शुद्ध यूरोपीय रंग के बालक न • पोप शब्द का अर्थ पिता है फिर नए मत वाले न जाने कौन सपूती समझ कर इसे ठछे की भांति अवहत करते हैं।