पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४०८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३८४ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली त्यागने के लिये उत्तेजना देता है। फिर कोई कैसे कह सकता है कि अमुक कार्य व पदार्थ वा पुरुष नितांत बुरा ही है। और यों तो हम अच्छे से अच्छों को बुरा बना सकते हैं ! घो दूध इत्यादि को सभी जानते हैं कि अमृत है किंतु बहुत सा खा जाइए तो उसी दिन अनपच का कोई रूप शिर पर आ चढ़ेमा जो समस्त रोगों का मूल है । भगवद्भजन और देशभक्ति इत्यादि अत्युत्तम काम है। इस के लिये प्रमाण की आवश्य- कता नहीं है । पर और सब छोड़ कर इन्ही में लग रहिए तो देख लीजिएगा कि दुनिया के किसी अर्थ का न रक्खेंगे। बड़े २ ऋषि मुनि देवतादि तक जब हमारे आचरण से असंतुष्ट होंगे तो बीसों विश्वा अनिष्ट कर डालेंगे । ऐसे २ अनेक उदाहरण हैं जिन से भली भांति विदित होता है कि भला और बुरा कुछ भी नहीं है, केवल हमारी विशता और अज्ञता से बुराई का परिणाम भला और भलाई का बुरा हो जाता है। यदि हम नियम के साप देश काल पात्रादि का विचार कर के प्रत्येक काम किया करें तो हत्या तक यज्ञ का अंग होकर अनेकों की रक्षा का हेतु और हमारी सुकीति अथच सुगति का कारण हो सकती है और बिना बिचारे निमविरुद्ध करने से यज्ञ भी संसार के अनिष्ट तथा कर्ता के सर्वनाश की जड़ हो जाती है। इसी से बुद्धिमान को उचित है कि यह न सोचे कि अमुक बात, काम अथवा पुरुष बुरा है । इस से उस से सदा दूर रहना चाहिए । नहीं, सब कुछ सीखना, सभी कुछ संचय करना और काम आ पड़ने पर किसी प्रकार कुछ भी करने में मंद न रहकर इष्टसाधन में पूर्ण दक्षता का परिचय देना ही परम कर्तव्य है और इसके विरुद्ध चलना मानो अपने हाथ से अपने पांव में कुल्हाड़ी मार लेना है । हमारा शास्त्र हमें आज्ञा देता है कि "बिषादप्यमृतंग्राह्यम्' पर इसका पालन हम तभी कर सकते हैं जब उस विष के रूप गुणादि से भली भांति परिचय रखते हों और उसका अमृतांश निकाल कर व्यवहार में ला सकते हों। यदि हम उसे विष समझ कर फेंक देंगे तो उसमें नो छिपा हुवा अमृत है वह भी हमारे हाथ से जाता रहेगा। अतः हमें चाहिए कि उसे विष न समझ कर यह समझने में सयत्न रहें कि उससे क्योंकर अपना उपकार और अपने विरोधियों का अपकार हो सकता है। पुराण और नवीन इतिहासों से प्रगट होता है कि जितने बड़े २ लोग हो गए हैं उनमें से बहुतों को उन्नति का कारण वही काम थे जिन्हें शास्त्र और लोक समुदाय अच्छा नहीं कहता। यहां तक कि भगवान भी निराकार होने पर नाना रूप धारण करते हैं और सत्य स्वरूप कहलाने पर राक्षसों को धोखा देकर मार डालते हैं, त्रैलोक्यनाथ होकर भक्तों को अधीनता स्वीकार करते हैं। फिर हम तुच्छ जीवों का क्या अधिकार है कि यह हठ करें कि यही करेंगे, यह कभी न करेंगे। यदि ऐसा करें तो हम अपनी हानि करते हैं। इससे सच झूठ, सरलता बक्रता, नम्रता कठोरता, जिससे काम निकलता देखें उसी को कर उठाये । अमृत विष, गंगाजल मदिरा, सुदृश्य कुदृश्य जैसी वस्तु को अपने काम की देखें उसी को व्यवहृत करने में संलग्न हों और भले बुरे, ऊंच नीच, चतुर मुखं जैसे पुरुष अथवा पशु से स्वार्थसिद्धि की आशा हो उसी का बाश्रय ग्रहण करें। दुनिया भर हंसे तो ईसा करे, बिगड़े तो बिगड़ती रहे, पर हमें अपने काम से काम रखना चाहिए ।