पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३९९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

छल (२)] ३७५ कुछ ले के सीखे। अधिक नहीं तो जिसके पास सीखता हो उसका मन ही अंटी में कर ले। मिष्ट भाषण एवं मिथ्या प्रेमप्रदर्शन को यहां तक पहुंचा दे कि उसे पूरा विश्वास हो जाय कि हमारा सच्चा विश्वासी है हमारे भेद अपने बाप के आगे भी न खोलेगा। साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि शिक्षक महाशय पर अपना भेद न प्रकट होने पावै और बड़ी ही भारी स्वार्थसिद्धि की आशा तथा आवश्यकता के बिना उनका भेद भी दूसरा न जानने पावै । बस फिर विद्या आ जाना असम्भव न होगा। पर यह उन्ही का साध्य है जिन्हें एकाग्रचित्तता का अभ्यास हो और चित्त की एकाग्रता के लिए हम लिख चुके हैं कि भय अथवा प्रलोभन की आवश्यकता है। उसमें भय तो भाग्य ही के बश कभी आ जाय तो खैर नही तो काल्पनिक भय को कभी पास न फटकने देना चाहिए। बरंच उत्तम तो यह है कि सचमुच हानि अपच कष्ट की सम्भावना हो तो भो चित्त को इन मंत्रों से धैर्य प्रदान करता रहे कि-होगा सो देखा जायगा, दुनिया में सुख दुःख सभी को हुआ करते हैं, दूसरे के चार हाथ थोड़ी हैं। विपक्षी धन बल दिखावै तो हम छल बल से काम लेंगे-इत्यादि और जब भय ना ही पड़े तो उसे भय न समझ घर उसके दूर करने के उपाय को मुख्य कर्तव्य समझना चाहिए। फिर बस परमेश्वर चाहे तो भय का भय नहीं ही रहेगा। और यदि आ पड़े तो खैर छल सीखने वा अभ्यास में लाने का अवसर मिला सही। किन्तु परमेश्वर ऐसे अवसर न दिखावे यही अच्छा है। हमारे पाठक कहते होगे कि छल की शिक्षा और बार २ परमेश्वर परमेश्वर ! यह क्या बात है ! इसके उत्तर में हमें कहना पड़ता है कि संसार में नास्तिक बहुत थोड़े हैं और जो हैं उन पर श्रद्धा बहुत थोड़े लोगों को होती हैं । इस कारण उन्हें कोई मुंह नहीं लगाता। इससे उन्हें छल करने के लिए पात्र नहीं मिलते और पात्राभाव से अपनी मर्यादा के रक्षणार्थ निष्कपटता का पुतला बनना पड़ता है । अस्मात् छलियों को अवश्य चाहिए कि ईश्वर और धर्म के गीत गाकर संसार में प्रति- ष्ठित बने रहें । बरंच जिनके साथ छल करना हो उनके सामने तो उन्हों की रुचि के अनुसार परमेश्वर का मानने वाला और धर्मतत्व का जानने वाला बनना पड़े तभी सुभ ते की हिकमत है। फिर क्यों न मानिए परमेश्वर नहीं है तो लोगों के ठगने को एक शब्द ही सही। और यदि है तो छल जनित पापों को दूर करेगा। इस रीति से न लोक का भय रहेगा न परलोक का । रहा प्रलोमन, वह किसी प्रकार त्याज्य नहीं है बरंच चित्त को एकाग्रता का सहज और सुहावना उपाय है । अतः उस की प्राप्ति के अर्थ यत्न कर्तब्ध है। हमारी समझ में पंच सकार अर्थात् संगीत, साहित्य, सुरा, सौंदर्य, सौहार्द्रय की सेवा का थोड़ा बहुत अभ्यास करते रहना सहृदयता तथा एकाग्रचित्तता के उत्सुकों को अत्युत्तम है । क्योंकि यह पांवों पदार्थ चित्त को आक- षित करके चिन्ता रहित कर देने की बड़ी सामथ्र्य रखते हैं । जो इनके रस का अभ्यासी है वह कैसी ही कठिनता का सामना पड़े पर घबराता नहीं है, कसा ही कष्ट, कैसी हानि, कैसा ही सोच क्यों न उपस्थित हो, जहां नियमानुसार कोई मजेदार तान अलापी अथवा