पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३८४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१६० [ प्रतापनारायण-पंपावली पर सहायक एवं दुरिच्छा से निषेधक इत्यादि रूप में आविर्भाव करते हैं और समय २ पर अपने शरीर धारण की साक्षो आप ही देते रहते हैं। जब आपको इस रीति का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जायगा तब अनुमान अवश्य ही कहेगा कि जो प्रभु एक साधारण ध्यक्ति के हितार्थ नाना रूप धारण करते रहते हैं वे क्या समस्त संसार के हेतु दश अथवा चौबीस अवतार भी न लें। पर यह सामर्थ्य आपको तब तक कदापि नहीं हो सकती जब तक प्रेमनगर के तुच्छ निवासी और प्रेम शास्त्र के अक्षराम्यासी बनने में धावमान न हजिए । पर इसमें हमारा काम कही देना मात्र है उद्योग करना न करना आपके भाग्य की बात है। अतः दृश्यमान जगत ही को आगे रख कर हम आप को अवतार का बिषय अवगत कराते हैं। ____ मानव मंडली सदा से सृष्टिकर्ता के गुण स्वभावादि है जिनका अनुमान सृष्टि की चाल ढाल के अनुसार करती आई है। जिन कामों को हम अपने अपनायत वालों के पक्ष में अच्छा देखते हैं उन्ही को ईश्वर की इच्छा, ईश्वर की आज्ञा, ईश्वर की प्रकृति के अनुकूल समझते हैं, इतरों को प्रतिकूल । इस नियम के अनुसार सूक्ष्म विचार कीजिए तो विदित हो जायगा कि संसार मे जितने जड़ वा चेतन पदार्थ हैं वह सभी यदि अपनो २ आदिम दशा से अंतिम गति तक निर्विघ्नता के साथ पहुँच जायं तो दश अवतारों में आविर्भूत हुए बिना नहीं रहते ! अर्थात् दश प्रकार की गति में प्रकाशित होना ही जगत् के यावत् पदार्थों का जातिस्वभाव है और जातिस्वभाव को सभी मत के लोग ईश्वर का अंश मानते हैं ! फिर आप क्योंकर सिद्ध कर सकेंगे कि ईश्वर का स्वभाव जगत् के स्वभाव से नितांत प्रतिकूल है। यह हम भी मानते हैं कि ईश्वर की सारी बातें पूर्णताविशिष्ट हैं और संसार की अपूर्ण पर इससे अवतार सिद्धि में कोई बाधा नहीं आतो बरंच और पुष्टता होती है अर्थात् हमारे अवतार विघ्न और विक्षेप से दलित होने पर अधूरे अथवा एक के मध्य दूसरे से मिश्रित भी रह सकते हैं। ईश्वर के अवतार पूर्ण रूप से शुद्धता के साथ अपना महत्व दिखाते हैं, जैसा कि पुराणों से विदित होता है कि जब जो रूप धारण किया तब उसके संबंध में जितनी बातें थी उतनी पूरी रीति से कर दिखाई और जिस काम में बड़े २ ऋषि मुनि देवताओं का साहस जाता रहा उसे ऐमी उत्तमता से पूरा किया कि त्रिकाल और त्रिलोक के पांडित्यामिमानियों की बुद्धि चक्कर खाया करती है। सच पूछो तो उसकी सर्वोत्कृष्टता और अनिर्वचनीयता का लक्षण ही यही है कि जितनी बातें हों सनी सर्वोत्कृष्ट तथा बुद्धि को बकरा देने वाली हों जिनका समझाना तो कैसा, समझना ही कठिनतम है । इससे हम भी यहां पर उसके अवतारों का चरित्र न वर्णन करके उसकी सृष्टि के शिरोमणि अर्थात् मनुष्य में जो अबतारों के निदर्शन पाए जाते हैं उन्हें दिखलाते हैं जिसमें बुद्धिमान समझ ले कि जिसको कारीगरी के एक २ अंश में अवतारीपन झलकता है वह स्वयं अवतारधारी कैसे नहीं है ? क्या उसका सहारा पाए बिना कोई गुण ठहर सकता है ? अथवा पुत्र का रंग ढंग देख के पिता के रंग ढंग का अनुमान नहीं होता ? खं. ८, सं० १० ( १५ मई, ह. सं०८)