पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३७३

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प्रतिमा पूजन के द्वषी देशहितैषी क्यों नहीं बनते हैं ? यदि वे मौखिक शास्त्रार्थ में परम दक्ष बनना चाहें तो अयुक्त नहीं है। क्योंकि यह पदवी थोड़ा सा पढ़ लिख कर बुद्धि संचालन मात्र के अभ्यास से सब को मिल जा सकती है । यदि महाधुरन्धर पंडित बनना चाहें तो भी परिश्रम करते २ अथवा जगत की रीति देखते २ हो जाना असम्भव नहीं है । साक्षात ब्रह्म बनना चाहे तो भी चाहे बन जायं क्योंकि वह एक मान लेने की बात है जिस का अधिकार सभी मन वालों को स्वतः प्राप्त है। पर हितषिता से और इन बातों से क्या संबंध । हित तो एक अनिर्वचनीय मनोवृत्ति है। वह हृदय में आती है तब आंधी की भांति चारों ओर के विघ्नों को उड़ाती हुई और चारों ओर अपना असर फैलाती हुई, कार्य कारणादि के झगड़े मिटाती हुई आ जाती है । उसके अस्तित्व का प्रमाण अनुभव है । सामने प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहता है और बातों के आगे अपना प्रभाव दिखाने या न दिखाने की परवाही नहीं रखता। इस सिद्धांत का जिन सहृदयों को थोड़ा सा भी ज्ञान है वे विचार सकते हैं कि जहां पर हितैषिता का तनिक भी संवार होगा वहां से द्वेषिता का नाम निशान भो कोसों दूर रहेगा। हम जिस का सच्चे जी से हित चाहते हैं उसे रुष्ट करने की सपने में भी इच्छा तक न कर सकेंगे। इस स्वयंसिद्ध परिभाषा को सामने रख कर सोचिए तो आप का अंतःकरण आप ही गवाही देगा कि जिस बात को एक देश सहस्रों वर्ष से, सहस्र भांति, श्रद्धापूर्वक अपने जीवन का सर्वस्व, नही नही जीवितेश्वर के मिलने का सर्वोतम, सीधा और सच्चा उपाय मान रहा है, उसी का विरोध करके जो अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देता है वह हितैषी कदापि नहीं कहा जा सकता। चिढ़ाने वाला कभी हित चाहने वाला हो सकता है ? हम जिसे चाहेंगे उस के नाम रूप गुण स्वभाव मित्र सेवक बरंच पालित पशु पक्षी तक को देख के हषित होंगे। इस बात को ईश्वर के अथवा संसार की किसी वस्तु को चाहने वाले ही जानते हैं, मुंह के बक्को बिचारे क्या जानेंगे, और न जानें सोई उन के लिए अच्छा है। इस रीति से राम कृष्णादि को प्रतिष्ठित मूर्तियों का तो कहना ही क्या है, हमें भगवती का नाम स्मरण कराने वाली चौराहे को इंट को भी चाहना चाहिए और निष्कपटता के साथ ऐसा करने वाले रुक्ष, नीरस केवल मुख, मस्तिष्क और कलहप्रसारिणी बुद्धि से संबद्ध तर्कशास्त्र की रीति से चाहे जैसे अल्पज्ञ वा सदसद्विवेचनाशून्य सिद्ध कर दिए जा सकें किंतु प्रेमस्वरूप परमात्मा तथा उस के सरस, सुस्वादु, हृदयग्राही, अमृतमय, प्रत्यक्ष, मूकास्वाद नवानंदप्रद प्रेमशास्त्र की दृष्टि में अवश्यमेव कोमल चित्त और आर्द्र प्रकृति ही चेंगे। पर मूर्ति- पूजा के द्वेषी उन्हें ऐसा न समझ के उन पर जड़बुखी इत्यादि मिथ्यावाद आरोपित करने में चेष्टावान रहते हैं। फिर भला जो कोई जिस पर झूठा बे सिर पर का कलंक लगाया चाहे वह उसका हितैषी किस न्याय से कहा जा सकता है ? और सुनिए, आप