पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३६७

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बाल्यविवाह ] ३४५ योग्य अवस्था आठ, नो वा दश वर्ष की ठहराई है वही "कन्याया द्विगुणोवरः" भी लिख रक्खा है और बधू का पति के घर जाना भी सात पांच अथवा तीन वर्ष के उप- रान्त नियत किया है। इस लेग्व से शास्त्र के अनुसार जिस कन्या का ब्याह आठवी वर्ष होगा उस का गौना सात वर्ष में होना चाहिए। तब तक वह आठ और सात पन्द्रह वर्ष की हो जायगी और उस का पति जो ब्याह के समय सोलह वर्ष का था इस समय सोलह सात तेईस वर्ष का हो जायगा। यो ही नौ वर्ष वाली कन्या पाच सात वर्ष के उपरान्त चौदह सोलह वर्ष की होगी तथा उसका स्वामी तेईस पचीस वर्ष का एवं दश वर्ष वाली तेरह पन्द्रह वा सत्रह वर्ष की अथच उस का भर्तार, ते ईम, पच्चीस, सत्ताईम वर्प का हो रहेगा। यदि किसो के माता पिता मोहवशतः गौने का ठीक समय न सह सके तो वह बहुत ही शीघ्रता के मारे आठ वर्ष की कन्या सोलह वर्ष के वर को दान करेंगे और उसे पति के यहां तीसरे वर्ष भेजेंगे तब लड़की की वयस ८+३ = ११ वर्ष की और उसके पति की १६+३= १९ वर्ष की होगी। उस के लिए 'ने के बिधि है जो गौने के एक वर्ष पीछे होता है। तब भी बारह वर्ष की कन्या और बीस वर्ष का बर हो जायगा तथा यह बारह और बीस एवं उपर्युक्त अवस्थाएं सहवास के लिए न वैद्यक के मत से दूषणीय हैं न डोक्टरी सिद्धांत से निंदनीय है न सरि की आज्ञा से दंडनीय हैं। और इस मूल पर यह तो बाल्य विवाह के द्वेषी महाशय भी मानेंहींगे कि यदि श रोरिक' मानसिक वा सामाजिक बाधा उत्पन्न होती है तो छोटी आयु के समागम से होती हैं न कि विवाह मात्र से । सो उस ( स्वल्पायु सहवास ) की शास्त्र मे कहीं आज्ञा ही नहीं है, वेवल कन्यादान के लिए अनुशासन है । उस से और सहबास से वर्षों का अंतर पड़ जाता है। फिर बतलाइए शास्त्रानुमोदित बाल्य विवाह दूपित है अथवा हमारी वैवाहिक रीति से निंदको की बुद्धि कलुषित है और उन मूों की समझ विक्कार के योग्य है जो आयसंतान कहला कर शास्त्र के आज्ञापालक बन कर करने अपने मन का हैं किन्तु नाम शास्त्र का बदनाम करते हैं। उस की आज्ञा जो अपन अनुकूल हो मानते हैं और दूसरी आशाएं जो धर्मशास्त्र और चिकित्सा शास्त्र के अनुकूल किन्नु उन की दुर्मति के प्रतिकूल हो उन्हे उल्लंघन करते हैं। हमारी समझ मे, बरंच प्रत्येक समझ वाले की समझ मे, तो न शास्त्र मे दोष लगाना चाहिए न काशिनाथ महोदय को अवा य शब्द कहना चाहिए। केवल उन्हीं के ऊपर थूकना चाहिए जो शास्त्र का नाम ले के अपने पागलपन से काम लेते हैं और तद्वारा अपनी संतति का जन्म नशाते हैं तथा देश परदेश मे अपने साथ २ अपने शास्त्रकारो की भी हंसी कराते हैं। सिद्धात यह कि यदि शास्त्र की तद्विषकीय आज्ञा का ठीक २ अनुगमन किया जाय तो बाल्यविवाह मे किसी प्रकार का दोष नहीं। खं० ८, सं० ८ ( मात्र, ह० सं० ८)