पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३३८

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बजमर्ख यह पदवी बहुधा उन लोगों को दी जाती है जो पढ़ने के नाम काला अक्षर भैस बराबर समझते हैं, बरंच बुद्धि से काम लें तो इतना और समझ सकते हैं कि भैस इतनी बड़ी होती है कि जी में धरे तो हजारों लाखों काले अक्षरवाली पोथियों को घड़ी भर में रौंद रौंद अथवा चबा के फेंक दे और अक्षरों का घमंड रखने वाले पोथाधारी जी को एक हुमलेंड में मट्टी में न मिला दे तो अधमरा जरूर कर डाले ! यदि गुणों की तुलना की जाय तो मैंस घास खाती है और दूध देती है जिस का सेवन करने से स्वादु का स्वादु मिलता है, बल का बल बढ़ता है पर अक्षरों के सीखने वाले बरसों परिश्रम करते २ दुबले हो जाते हैं, गुरु महाराज की बातें कुबातें और मार सहते २ मरदई का दावा खो बैठते हैं तथा जन्म भर पूजा पाठ करने, कथा बारता बांचने वा नोकरी चाकरी के लिये भटकते रहने के सिवा और किसी काम के नहीं रहते। फिर भला हमारी प्यारी भैस को बराबरी मच्छर ऐसे अच्छर पच्छर क्या कर सकेंगे ! ऐसे लोगों को विश्वास होता है कि बहुत पढ़ने से मनई बैलाय जात है ! पढ़े लिखे ते लरिका मेहरा हो जात है ! हम का पढ़ि के का पंडिताई कर का है ? हमरी जाति मां पढ़बु फलते नाही ना! ऐसे को विद्वानों और बुद्धिमानों के पास बैठने तथा उनके कथोपकथन सुनने समझने आदि का समय एक तो मिलता ही नहीं है और यदि मिले भी तो पंडितरान अथवा बाबू साहब को क्या पड़ी है कि अपने अमूल्य विचार इन के सामने प्रगट करके अंधे के आगे रोवै अपने दीदे खो ! उपदेश करना तो दूर रहा इन के मोंगरी के से कूट मोटे ताजे अनगढ़ शरीर और बस्त्राभरण के नाते एक छोटी सी मोटे कपड़े की मैली अथवा हिरमिजी से रंगी हुई धोती और लंबा सा मोटा लट्ठ देख कर तथा बात २ में सार ससुर इत्यादि शब्दों का सम्पुट पाठ सुन कर प्रीतिपूर्ण बातें तक करना वे अपनी शान के बईद समझते हैं। किंतु विचार कर देखिए तो यह लोग मूर्ख भी नहीं कहे जा सकते बज्रमूख तो कहां रहता है, क्योंकि अपने खेती किसानी आदि के काम पूरे परिश्रम और धर्य के साथ करते हैं, यथा लाम सन्तोष सुख का सच्चा उदाहरण बने रहते हैं, अपनी दशा के अनुसार कालक्षेप और अपनी जाति की रीति नीति का निर्वाह तथा सजातीय मान्य पुरुषों का यथोचित सम्मान करने में चूकते नहीं हैं, जिससे व्यवहार रखते हैं उस की यथासाध्य एक कोड़ी तक रख लेने का मानस नहीं रखते, राजा और राजपुरुषों के गुण दोषों की समालोचना न करके उन की आज्ञा पालन करने में चाहे जैसा कष्ट और हानि सहनी पड़े कभी मुंह नहीं मोड़ते बरंच शिकायत का हर्फ भी जबान पर बहुत कम लाते हैं। मन का मसुसा मन ही में मारे हुए "राजा करे सो म्याव है" इस बचन को वेदवाक्य से समझे रहते हैं। जिस से मित्रता करते हैं वा जिसे