पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३३१

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हरि जैसे को तैसर है ] जब महात्मा मसीह को ईश्वर का पुत्र कहते हैं तो उनके धर्म विरोधी पूछ बैठते हैं कि ईश्वर के पुत्र है तो स्त्री और माता पितादि अन्यान्य कुटुंबी भी होने चाहिए, इस पर सार्वभौमिक धर्मावलंबियों को उत्तर देने का बहुत अच्छा अवसर मिल सकता है कि हां, बातों को हार जीत का व्यसन छोड़ के आप सच्चे जी से उस के बन जाइए तो देखिएगा कि साधारण रीति से समस्त संसार ही उसकी संतति है। क्यों कि उत्पत्ति- कारक सबका बही है । रहा विशेष संबंध, सो० मसीह जानते थे कि मैं उसका पुत्र हूँ, कभी २ स्नेह की उमंग में कह भी देते थे। पर यह कभी नहीं हुवा कि वह शास्त्रार्थ में अपने को खुदा का बेटा सिद्ध करते फिरे हों। क्योंकि शास्त्रार्थ से और आंतरिक सिद्धांत से बड़ा अंतर होता है । यदि आप को प्रेयशक्ति हो तो नंद बाबा और दशरथ महाराज इत्यादि की नाई उसके पिता बन जाइए और देख लीजिए कि वह आप के मनोमंदिर में शिशु लीला संपादन करता है अथवा नहीं। अवश्य करेगा, क्योंकि वह अपने भक्तों का कोई मनोरथ सफल करने में कभी त्रुटि नहीं करता । पर होना चाहिए भक्त । वेवल वक्ताओं के लिये वह शब्द मात्र से अधिक कुछ नहीं है। सो भी अनेक मतावलंबियों के किसांतानुसार पवित्र और न्यायपूर्ण शब्द जो अपवित्र मुख और अन्यायपूर्ण हृदय से निकलने पर उच्चारणकर्ता को उसके कुव्यवहार का फल अवश्य चखता है। अधिक नहीं तो ऐसे पंचकों का ( जो अपने आंतरिक स्वार्थ एवं कपट को छिपा के संसार के संमुख अपनी धर्मनिष्टता और ब्रह्मविज्ञता दिखलाते रहते हैं ) पित्त ही ऐसा सदसद्विवेक बंचित बना देता है कि उन्हें कुछ दिन पीछे यह बोध भी नहीं रह जाता कि हम जो चाल चल रहे हैं वह वस्तुतः अच्छी है अथवा बुरी । इस से स्वयंसिद्ध है कि 'हरि जैसे को तैसा है'। अस्मात हमें उचित है कि उसे जिस रीति से जैसा कुछ मानते हैं माने जायं । न किसी के बहकाने से बहकें न किसी को बहकाने का मानस करें। क्योंकि ऐसा करते हो हमारे ईश्वर मानने में विक्षेप पड़ जायगा । और इसके साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि मानना सच्चे जी से, सरल भाव के साथ संबंध रखता है। यदि अंतःकरण उसके अस्तित्व को साक्षी न देता हो तो लोगों के दिखलाने को ईश्वर २ करने का कोई काम नहीं है । झूठे बनावटी आस्तिक से नास्तिक कोटिगुणा उत्तम होता है क्योंकि वह किसी को धोखा नहीं देता । और कच्चा आस्तिक अपनी आत्मा के साथ आपही अन्याय तथा प्रवंचना करता रहता है। इस से यदि मानिए तो सच्चाई के साथ दृढ़तापूर्वक मानिए। फिर इस बात का झगड़ा न रह जायगा कि कैसा मानें, क्यों कर माने । जैसा मानिएगा वैसा फल आप पा जाइयेगा क्योकि 'हरि जैसे को तैसा है' ।हमारी समझ में अभी भारत संतान के मध्य नास्तिकता बहुत नहीं फैली। अस्मात हम अपने पाठकों से पूछा चाहते हैं कि आप ईश्वर को अपना क्या मानते हैं ? यों कहने को तो माता, पिता, गुरू, स्वामी, अन्नदाता, सुखदाता, मुक्तिदाता, इत्यादि अगणित शब्द हैं, पर मानना वही है जो दृढ़ निश्चय के साथ माना जाय । यों सहस्रनाम का पाठ करने से केवल समय का नष्ट करना है अथवा लोक परंपरा