पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२८३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सत्य ] २६१ के 'कर्तुमकनुमन्यथा कतु समर्थ' हुजूर खुदाबंदों की नाक के बाल बन के गुलछरें उड़ा- वेंगे, उस समय थोड़े बहुत दरिद्री, निबुंदी, ढीठ और अभागी लोग कुछ कही लेंगे तो क्या हो जायगा, पीठ पीछे कौन किस को नहीं कहता ? अखबार वाले क्या २ नहीं बका करते। पर किसी के कहने सुनने के डर से अपनी हानि करना कहीं बुद्धिमानी है ? एक बुद्धिमान का वचन है कि फलाने ने मुझे पांच सौ गालियां दी पर घर आ के कपड़े उतारता हूँ तो एक भी गाली का नितान तक न देख पड़ा। इस से अपना सिद्धांत तो यही है कि कोई कुछ बके बकने देना पर झूठ, खुशामद, छल कपट कुछ ही करना पड़े कर डालना और अपने मनलब में न चूकना। न जाने वह कैसे लोग थे जिन्होंने धर्म को वृषभ बनाना है और सत्य, शोच, दया, दान उसके चरण वर्णन किये हैं । नही तो सत्र यों है कि बैलों का धर्म बैल है और मनुष्यों का धर्म मनुष्य है, इस न्याय से वृषभ रूपधारो धर्म के पांव कलियुग महाराज ने काट डाले, अतः अब यह धर्म चलने के योग्य नहीं रहा। इस से इस समय हमारा मानव रूप विशिष्ट द्विपद धर्म चलना चाहिए, जिसका एक चरण पालिसी है दूसरा खुदगरजी । इन दोनों चरणों में से यदि एक में भी तानक भी कसर हुई तो धर्म का चलना कठिन है । अस्मात यह जाने रहिए कि यदि धर्म का लक्षण यही है कि "मतोऽभ्युदयनिःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः' अर्थात् जिसके द्वारा सांसारिक उन्नति और मुक्ति सिद्ध हो वही धर्म है तो स्मरण रखिए कि अभ्युदय के लिए सत्य का आश्रय लेना ऐसा ही है जैसा पानी मथ के घो निकालना। हाँ, पालिसी के साथ झूठ मूर दूसरों की दृष्टि में सत्यवादी, सत्यमानी और सत्यवारी बने रहिये और अपनी टही जमती दीखे तो दुनिया भर की चालाकी करने में भी हिविर मिचिर न कीजिए। बस, सत्यदेव ने चाहा तो अन्न, धन, दूध, पूत, खिताब, समगा सब कुछ मिल जायगा। रही निःश्रेयससिद्धि, उसके विषय में जब कालिदास ऐसे महात्मा 'अविदित सुख दुःखं निविशेष स्वरूपं जड़मतिरिह कश्चिन्मोक्ष इत्याजगाद' कह गए हैं तो ऐसी वे सिर पर की वस्तु के लिए यत्न करना शेखचिल्ली का नाम जगाना है । हाँ, मुक्ति का अर्थ छुटकारा है, उसके लिए चिंता करना व्यर्थ है। लोक ना, परलोक चिता, धर्म की चेष्टा, परमेश्वर का भय इत्यादि कल्पित बंधनों में न डए बस मुक्ति ही है-'पाशबद्धः सदा जीवः पास मुक्तः सदाशिवः'। ऐसी दशा में धर्म ही से कोई प्रयोजन न रहेगा, सत्य तो उस की एक टांग मात्र है, उसमें क्या रक्वा है ? और रक्खा भी हो तो मरने के पीछे मिलता होगा, दुनिया में तो कोई काम निकलने का नहीं। स्मृतिकारों के शिरोमणि मनु भगवान स्वयं उस के बोलने का निषेध करते हैं 'नयात्सत्यमप्रियं' अर्थात् सत्य होती है अप्रिय अतः उसे न बोलना चाहिए । फारस देश के नीतिविदाम्बर शेख सादी ने भी कहा है कि हेल मेल से परिपूर्ण ( क्योंकि जिस को ठकुरसुहाती बातें सुनाते रहोगे वही स्नेह करेगा) असत्य अनर्थ उपजाने वाली सत्य से श्रेष्ठतर है-दरोगे मस्लहत आमेज बिहतर अजरास्तीए फितना अंगेज । यदि ऐसे २ महात्माओं के वाक्य सुन के भी आपको पूर्णसंस्कार के अनुरोध से सत्य की ममता बनी हो तो उसे केवल आप सवालों के लिये बनाए रखिए, गृह, कुटुंब,