पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२६८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२४६
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२४६ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावलो विरुद्ध हठ हो तो आवै हम शास्त्रार्थ के लिये कटिबद्ध हैं। पर इन बातों से क्या ? यह तो छोटे २ बच्चे भी जानते हैं कि सब देश के मनुष्यों ही की नहीं बरंच जीव जन्तुओं को भी एक स्वतंत्र बोली होती है और सबको अपनी बोली से ममता भी होती है। सुग्गा मैना पेट के लिये मनुष्यों की सी बोली सीख लेते हैं पर अपने सजातियों में तथा विजातियों में भी अपना आंतरिक भाव प्रकाश करने के लिय अपनी ही बोली का अवलंबन करते हैं। खेद है यदि खुशामदी, स्वार्थतत्पर, हृदयशून्य हिंदू चिड़ियों से भी बह जायं। अन्याय है यदि गवर्नमेंट ऐसे बन मूखों पर भी दया न करे जो डर और खुशामद के मारे अपनी मातृभाषा के गले पर छुरी फिरते देख के भी कुछ न टसक सकें। हे हिंदुओं ! हम जानते हैं कि तुम्हें अपनी भाषा का रत्ती भर मोह नहीं है, नहीं तो 'सारसुधानिधि' एवं 'भारतेंदु' आदिक उत्तमोत्तम पत्र बन्द न हो जाते । हिन्दी का एकमात्र दैनिक पत्र “हिन्दोस्थान' तया सुलेखमय सच्चे रत्नों का एक मात्र भंडार 'हरिश्चन्द्र कला' इस दशा में न होती कि केवल अपने स्वामी ही के धन से चले । पर इन बातों का भी इतना शोच नहीं है। अभी तक आशा थी कि आज नहीं तो दश वर्ष में तुम्हें बोध होगा, तब नागरी देवी की महिमा जानोगे और इसके लिये तन मन धन निछावर करने में अपनी प्रतिष्ठा समझोगे। किंतु अब हमारी आशा के गले पर छुरी रख दी गई है। इससे हमें अनुभव हो रहा है कि दस ही बीस वर्ष में तुम्हारी भाषा का नाम न रहेगा और तुम्हारे सर्वनाश का अंकुर दिवाई देने लगेगा। इमसे मानो चाहे न मानो पर हम चिता देना धर्म समझते हैं कि यदि अपने संतान का कुछ मोह हो, अपनी जाति का कुछ भी चिह्न बनाये रखना चाहते हो तो शीघ्र इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की कुमंत्रणा के रोकने का उपाय करो। नहीं तो याद रखो कि जहां वर्तमान काल के वृद्ध और युवक मरे वहीं हिंदी स्थान में हिन्दूपन की गंधि भी न रह नायगी। कई पत्रों से विदित हुआ है कि यहां की यूनिवर्सिटी ने हिंदी को सातवीं क्लास तक में नहीं रकवा । इस घोर अत्याचार की इसके अतिरिक्त और क्या मनसा हो सक्ती है कि संस्कृत कठिन है, उसे अपने बच्चों को पढ़ावेगा कौन, अरबी हिन्दुओं के है किस काम की ? झख मारेंगे, फारसी पढ़ावेंगे। एक तो अंग्रेजी ही विदेशी भाषा है, बहुत सहज में आ जाती है, उसके साथ एक और विदेशी भाषा फारसी ढूंस दी गई, जिससे लड़कपन ही से परिश्रम के मारे दिमाग कमजोर हो जाय, बुद्धि उकसने न पावै, दिन रात दूनी चिता सिर पर सवार रहे, आंखों की ज्योति और देह का बल जन्म भर क्षीण ही वना रहे, ऊपर से अपने धर्म कर्म आचार व्यवहार का दमड़ी भर ज्ञान न होने पावे, रंजे पुंजे घर के हों तो जन्म भर इश्क के बन्दे बने रहें, नहीं तो पेट की गुलामी करते २ मर मिटें, देश जाति राजा प्रजादि से कुछ सबंध न रहे बस । यह पढ़ाई का फल है ! यह विश्वविद्यालय की करतूत है ! इसके लिये हम उसके प्रबन्धकर्ताओं को दोष नहीं दे सक्ते, क्योंकि सर सैयद अहमद को हिन्दुओं को पीर तभी तक थी जब तक अलीगढ़ कालेज के लिये चन्दा उधाना था। पंडित लक्ष्मीशंकर को स्वभाषा, निज जाति और अपने देश की ओर जो कुछ मभता है वह काशी पत्रिका ही से प्रत्यक्ष है