पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२६४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२४२ [ प्रतापनारायण-प्रथावली वृत्तांत उन के मुख पर धरा रहता है । अर्थात वर्णन करने के समय सोचना हो नहीं पड़ता या यों समझ लो कि चार बड़े बूढ़े चतुर लोगों का बचन ब्रह्मवाक्य के समान यथार्थ होता है, अत: 'मांचेहु ताको न होत भलो कही मा त जो नहिं चारि जने की' । हमारी समझ में निरभिमानी, मिष्ट भाषी और स्नेही हुए बिना ब्रह्मा जी के साथ साक्षात् सम्बन्ध कोई नहीं लाभ कर सकता। १५. शेष जी अथवा विराट भगवान के सहस्र मुख हैं, अर्थात् जो परमेश्वर समस्त संसार के नाश हो जाने पर शेष ( बाको ) रहता है, जो विविध विश्व का आधार और यावत् सृष्टि का प्रकाशक सदा एकरस बिराजमान रहता है वह सहस्र अर्थात् सहस्रों शिरों का अधिष्ठाता है । सहस्रों शिर बनाता और उनमें से एक २ सहस्रों भाव उपजाता तथा अंत में धूल में मिलाता रहता है। सहसानन का शब्द पुरानकर्ता ही नहीं बरंच वेदवक्ता भी मानते हैं-'सहस्रशीर्षापुरुषः' इत्यादि। फिर जब किसी शब्दों ( जिन में सैकड़ों उलट फेर के अर्थ निकल सकते हैं ) के लिखने वालों के हाथ सहस्रशीर्षा से अधिक अभ्रांत पद नहीं लिख सके तो मूर्ति रचना ( वा कल्पग ) करने वाले ( जिन का मनोभाव केवल अनुभव से जाना जाता है शब्दों से नहीं ) हजार मूड बना दें तो कौन सा अपराध करते हैं ? शेष जी की सांस की मूर्ति देव के बहुतेरे स्थूल बुद्धी हंस पड़ते हैं मोर कह देते हैं, 'भली परमात्मा की पोप जी ने कद्रदानोको', पर बुद्धिमान समझ लेते हैं कि सब गुण और सब पदार्थ उसो के हैं, अतः चाहे जिस गुण रूप स्वभाव को मानो, आत्मा के लिए कल्याण ही है। यदि मृष्टि को संहार कर के शेष रहनेवाले को हमने, प्राणनाशकता के गुण का सादृश्य देख के, सर्प से उपमा दे दी तो क्या अनर्थ हुआ ? भयानक रूप के मानने वाले दुष्कर्मों से भयभीत एवं अपने विरोधियों पे निर्भय रहते हैं। फिर ऐसे रूप की पूजा में क्या पाप है ? पर शेष जी तो भयंकर हैं भी नहीं, नहीं तो स्यामसुंदर चतुर्भुज रूप से अपनी प्यारी कमला समेत उन पर शयन क्योंकर करते । पर यह बातें कोई उन्हें क्योंकर समझा सकता है जिनका मत देवल परछिद्रान्वेषण ( सो भी मोटी समझ के शास्त्रार्थ द्वारा ) निर्भर है। खंड ६, सं० ८,९,१०,१२ (१५ मार्च, अप्रैल, मई, जुलाई १० सं ६) खंड ७, संख्या १, २ (१५ अगस्त, सितंबर, ह. सं० ६) दो दकार की दुरूहता हमारे पाठकों को भलीभांति विदित है और यह शब्द उसी में गौर एक तुर्रा लगा के बनाया गया है। इससे हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह भी दुःख दुर्गुणादि का दरिया ही है । क्योंकि सभी जानते हैं--'नहिं विष बेलि बगिय फल फरही', पर इतना समझ लेने ही से कुछ न होगा। बुद्धिमान को चाहिए