पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२५५

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पौराणिक गूहाथ ] २३३ नहीं रही जो तुम्हारी जवानी में थी। इससे उत्तम यह है कि इस वाक्य को गांठी मांगे कि – 'चाल वह चल कि पसे मगं तुझे याद करें। काम वह कर कि जमाने में तेरा नाम रहे ।' नहीं तो परलोक में वैकुंठ पाने पर भी उसे थूक २ के नर्क बना लोगे इस लोक का तो कहना ही क्या है। अभी थूक खखार देख के कुटुम्ब वाले घृणा करते हैं, फिर कृमि विट भस्म की अवस्था में देख के ग्रामवासी तथा प्रवासी घृणा करेंगे। और यदि वर्तमान करतूतें विदित हो गई तो सारा जगत सदा थुड़ २ करेगा। यों तो मनुष्य की देह ही क्या जिसके यावदवयव घृणामय हैं, केवल बनाने वाले की पवित्रता के निहोरे श्रेष्ठ कहलाती है, नोचेत् निरी खारिज खराब हाल खाल की खलीती है । रिसर भी इम अवस्था में जब कि 'निवृता भोगेच्छा पुरुष बहुमाना बिगलिताः समानाः स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः। शनर्यष्टयुत्थानं घन तिमिररुद्धेऽपि नयने अहो दुष्टा काया तदपि मरणापायचकिता।' यदि भगवचरणानुसरण एवं सदाचरण न हो सका तो हम क्या हैं, राह चलने वाले तक धिक्कारेंगे और कहेंगे कि-'कहा धन धामैं धरि लेहुगे सग मैं भए जीरन जरा मैं तहू रामै ना भजत हो।' यदि समझ जाओगे तो अपना लाक परलोक बनाओगे, दूसरो के लिये उदाहरण के काम आओगे, नहीं तो हमें क्या है, हम तो अपनी वाली किये देते हैं, तुम्ही अपने किये का फल पाओगे और सरग में भी बैठे हुए पछिताओगे। लोग कहते हैं बारह बरस वाले को वैद्य क्या ? तुम तो पर- मात्मा की दया से पंचगुने छगुने दिन भुगताए बैठे हो । तुम्हें तो चाहिये कि दूसरों को समझाओ पर यदि स्वयं वर्तव्या र्तव्य न समझो तो तुम्हें तो क्या कहें हमारी समझ को विकार है जो ऐसे वाक्यरत्न ऐसे कुत्सित ठौर पर फेंका करते हैं । ___ खं० ६, सं० ८ ( १५ मार्च ह० सं० ६) पौराणिक गूढार्थ अंग्रे नी ढंग की शिक्षा पाने वालों में न जाने यह दोष क्यों हो जाता है कि जो ब. सहज में नहीं समझ पड़ती उन्हें मिथ्या समझ बैठते हैं। यदि इतना ही होता तो भी इसके अतिरिक्त कोई बड़ी हानि न थी कि थोड़े से लोग कुछ का कुछ समझ लें । पर खेद यह है कि वे अपनी अनुमति देने में अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा का कुछ भी ध्यान न करके बिन समझी बातों के विषय में भी बहुधा ऐसी निरंकुश भाषा का प्रयोग कर बैठते हैं जिसमें विद्वानों को खेद और साधारण लोगों को क्षोम उत्पन्न हो के परस्पर की प्रीति में बड़ा भारी धक्का लगता है। आजकल सब समाजें आपस के हेल मेल को आवश्यक समझती हैं एवं विचारशील लोग सारे धर्म कर्मादि से एकता को श्रेष्ठ समझते हैं । पर इन ऐक्यभावुकों में भी बहुत से लोग ऐसे विद्यमान हैं जो अपने यहां के महाविरे