पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२१७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मतवादी अवश्य नर्क जायंगे ] नहीं है और सबका सा कोई है । हड़ विश्वास और सरल स्नेह के साथ उसे जो कोई जिस रीति से भजता है वह उसका उसी रीति से कल्याण,शांति,दान अथच परित्राण करता है। इस बात के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । जिसका जी चाहे वह चाहे जिस रोति से भजन करके देख ले कि ईश्वर उसे उसी रीति में आनन्द देता है कि नहीं। पर मत विषयक शास्त्रार्थ के लती स्वयं भजन नहीं करते वरंच दूसरे की भजनप्रणाली में विक्षेप डालने का उद्योग करते हैं,बहुत वर्षों से अथवा बहुत पीढ़ियों से जो विश्वास एक जी पर जमा हुवा है उसे उखाड़ कर उसके ठौर पर अपना विचार रक्खा चाहते हैं । भला इससे बढ़ के हरिविमुखता क्या होगी? और ऐसे विमुखों को भी न नर्क हो तो ईश्वर के घर में अंधेर है । संसार में जितनी पुस्तकें धर्मग्रन्थ कहलाती हैं सब के लिखने वाले भगवान के भक्त एवं जगत के हितैषी मनुष्य थे। अपने २ देशकाल अथच निज दशा के अनुसार सबों ने ही अच्छी ही अच्छी बातें लिखी हैं। रहा यह कि मनुष्य की बुद्धि सब बातों में और सब काल में पूर्णतया एक रूप में नहीं रहती इससे संभव है कि प्रत्येक मत के प्रवर्तक से कुछ बुराई हो गई हो या उसके लेख में कही भ्रम यो दोष ही रह गया हो, पर हमें अधिकार नहीं है कि उनके काम या वचन पर आक्षेप करें। यदि आप यह न भी मानें कि हमारे दोषों से उनके अल्प थे तो भी इसमें सन्देह नहीं है कि आपके भी सब काम और बातों में अशुद्धि का संभव है। फिर आप किस मुख से दूसरों को बुरा कहें; जब कि भलाई बुराई सबमें है तो मतवालों को यह अधिकार किसने दिया कि दूसरे की बुराई गावें । यह उनकी शुद्ध दुष्टता नहीं है तो क्या है ! श्री रामानुज, श्री शंकराचार्य, श्री मसीह, श्री मुहम्मद, सब मान्य पुरुष थे ( इस बात के साक्षी लाखों लोग हैं )। इन में से किसो के जीवन चरित्र में ऐसी बात नहीं पाई जाती जैसी आजकल के लोग मुंह से बुरी बताते हैं पर करते अवश्य हैं ! इसी प्रकार वेद, पुराण, बाइविल, कुरआन, सब धर्मग्रंथ हैं क्योंकि चोरी, जारी, विश्वासघात आदि की आज्ञा किसी में नहीं है। फिर इनकी निन्दा करने वाला स्वयं निन्दनीय नहीं है तो क्या है ? यदि परमेश्वर संसार भर का स्वामी है और सभी की भलाई का उद्योग करता है एवं उद्योग यही है कि आचार्यों के द्वारा धर्मपुस्तकों का प्रचार करना, तो यह कैसे हो सकता है कि एक ही भाषा को एक ही पोथी और केवल एक ही आचार्य सब देशों और सब काल के लिए ठीक हो सकें ! हर देश के लोगों की प्रकृति, स्वभाव, सामर्थ्य, भाषा, चाल ढाल, खाना, पहिनना आदि एक सा कभी नहीं हो सकता। फिर ईश्वर की एक ही आज्ञा सब कहीं के सब जन कसे पालन कर सकते हैं ? आज भारतवर्ष का कौन राजा अश्वमेध अथवा राजसूय यज्ञ कर सकता है ? अरब ( या अपने ही यहां बंगाल) के रहने वाले मांस के बिना के दिन सुख से रह सकते हैं ? चालीस २ दिन का ब्रत राजा, निर्बल और कोमक प्रकृति वालों से कब निभ सकता है ? फिर यदि ईश्वर एक ही लाठी से सबको हाँके तो उसकी जगदीशता का क्या हाल हो ? कभी किसी वैद्य को हमने नहीं देखा कि सब को एक ही औषधि सब प्रकार रोगियों को दे देता हो! जब जिसके लिए जो बात ईश्वर योग्य समझता है तब तिसको तीन ही बतला देता है। उससे बढ़ के बुद्धिमान