पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२१२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१९०
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१९. [ प्रतापनारायण-ग्रंपावली सारी भी यह आशा रखते थे कि जिस दिन परमात्मा की दयादृष्टि तथा मालिक की लहर बहर हुई उसी दिन हमारा सारा दुख दरिद्र टल जायगा। __अब तो हम देखते हैं कि किसी को संतुष्टता हई नहीं। छोटे धंधेवालों का तो कहना ही क्या है, बड़े २ कोठीवाल हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। यह तो बहुधा सुन लोजिए कि आज फलाने बिगड़ गये, आज ठिकाने का दिवाला निकल गया, पर यह बरसों में सुनने ही में नहीं आता कि फलाने २ रुजगार में बन बैठे । यों ही नौकरी करने वालों की कौन कहे, उनकी जड़ तो धरती से सवा हाथ ऊपर ( अधड़ में ) रहती ही है, जो रईस कहलाते हैं, जिनके यहां दस बीस जने नौकरी करते हैं, वे स्वयं हाय २ में फंसे रहते हैं । करें क्या बिचारे, आमदनी आगे की सी रही नहीं, खर्च कम करें तो चार जने उंगली उठावें, पुरुखों का नाम धरा जाय । 'संपति थोरी पति बड़ी यहै बिपति इक आय' । ज्यों त्यों भरमाला बांधे बैठे रहते हैं। पता लगावो तो ऐसा बिरला ही अमीर होगा जो कर्ज में न डूबा हो। लोगों की नीयत का यह हाल है कि आगे कोन किसके यहां से कितना रुपया कब उधार ले आता है, कब दे आता है, कोई जानता भी न था। लेनेवाला समझता था कि न देंगे तो पांच पंच में मुंह कैसे दिखावेंगे। मर के भी परमेश्वर के यहां देना पड़ेगा। ऋणहत्या न मुच्यते । इससे चाहे जो हो लहनदार से पीछा छुड़ा ही लेना चाहिये । यहाँ तक कि बाप दादे के हाथ की बीसियो बरस का देना निपटा के जो गया कर आता था वह समझ लेता था कि अब सुचित हुए । इसी भांति लहनदार समझता था कि फलाने भलेमानस हैं, जब उनके पास होगा बेईमानी न करेंगे, चार जने के आगे थुक्का फजीती से क्या फायदा; भाग का होगा तो मिली रहेगा, नहीं तो पुरबुले में एक २ सौ २ मिलेंगे और जो हमी अगले जनम के ऋणी होंगे तो उरिण हो गए। पर इस जमाने में पुरुषों का कर्ज तो कौन देने आता है ( बरुक गया गदाधर पूर्वजन्म इत्यादि पाखंड समझे जाते हैं ) खास अपने हाथ का लिखा तमस्सुक तीन बरस बीत जाने पर रद्दी कर देते हैं। गवाही को झूठा बताते हैं । बीच में मांगने वाला मांगे तो आँखें दिखलाते हैं। मुकद्दिमा होने पर बारिस्टर ढूंढते हैं जिसमें कोई राह निकल आवे ओ जमा हजम हो जाय । इधर पाने वाला जिस समय उधार देता है तभी सोच लेता है कि नियाज का छियाज जोड़ के एक २ के छः २ लेने चाहिये । यदि कोई सूरत निकल आवे तो इसका घर और जेवर भी हाथ लग जायगा कहीं किसी तरह १५ दिन को बड़े पर भेज सकें तो सदा आँख नीधी रखेगा। भला इन नीयतों से कभी किसी का भला हुमा है ? अविश्वास इतना फलं गया है कि हम अपनी जवानी में अमुक सजन से हजारों का गहना गुरिया मांग लाते थे और दे मात थे, हमारे घर की सारी चीजें सदा आज इसके यहां पड़ी हैं कल उसके यहां पड़ी है पर कभी एक चांदी के छल्ले की भी मूल न पड़ी। पर आजकल तो किसी को कुछ दे दीजिए, यदि मार न रखेगा तो भी अस्तव्यस्त अवश्य ही कर देगा और जो किसी के यहां कुछ मांगने जाओ तो दी हुई वस्तु के अवयवों की गिनती करेगा, चार जनों के