पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/२१०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१८८ प्रतापनारायण-प्रन्थावली] चाचो, बहिनो इत्यादि कहते भी हो तो जी में यह जरूर समझते होगे कि न हमारे चाचा को विवाहिता हैं न हमारे बाप की बेटी है, फिर डर ही क्या है, कोई जान ही जायगा तो क्या होगा, अदालत के वास्ते सुबूत ही क्या है, और हो भी तो क्या फांसी हो जायगी? वेश्या के यहां जाना तुम अमीरी और जिंदादिली समझते हो । धिक्कार है इस बुद्धि को! यदि परमेश्वर करे देश में यही चाल चल जाय कि ब्याह २४.२६ वर्ष में हुआ करे तो भी तुम में वह लक्षण नहीं हैं कि तुम्हारा बूता बना रहे ! बल की रक्षा के सिवा धन का यह हाल था कि बांगरमऊ की असी, लखनऊ को छोट, कनौष का गाढ़ा, ढाके की मलमल इत्यादि हमारे कपड़े ऐसे थे कि कम से कम बरस दिन तक तो टसकाए न टसकते थे। बरंच गरीब गुरबा के कपड़े की यह दशा थी कि एक गाढ़े का यान ले लिया, दो वर्ष धोती पहिनी फिर रंगा के रजाई बनवा ली। तीन चार वर्ष की फिर छुट्टी हुई। भला यह तो बताओ तुम्हारे लंकलाट और तंजेब के अंगरखे के महीने चलते हैं ? अभी बरतनों पर गुसयां की दया है। अधिकतर देशी हो हैं, जो टूट फूट जाने पर भी तांबे पीतल के भाव बिकी जाते हैं। पर तुम्हारी कुबुद्धि ने कांच के गिलास और लंर इत्यादि भी भक्ति उप नाय दी है जिनमें दाम तो दूने चौगुने लगते हैं पर फूट जाने पर शायद ५) को लंप एक रूपये को भी न बिके । कहां तक कहें, सबसे तुच्छ जूता होता है, सो अमीर लोग भी ३, ४ का पहिनते थे और टूट जाने पर नौकरों को उठा देते थे। वे पहिन पहिना के रुपए बारह आने भर चांदी उसमें से निकाल लेते थे, पर तुम्हारे पांच रुपए के बूट में बताओ तो कितनी जरी होगो ? रुज- गार की यह गति थी कि हमारी देखी हुई बात है, लखनऊ, फवाबाद, मिरजापुर आदि में कंचन बरसता था। पर हाय आज धूल उड़ती है, और राम न करे यही हाल कुछ दिम और रहा तो यह शहर के नाम से पुकारे जाने योग्य रहेंगे, क्योंकि स्त्री का पति है पुरुष और पुरुष का पति रुजगार । उसका इस जमाने में कही ठीक ही नहीं है। आगे सौ पचास रूपए लगा के छोटा मोटा धंधा कर उठाता सो भी चैन से दिन बिताता था। पर आज हम देखते हैं जो हजारों अटकाए बैठे हैं वे खीझते रहते हैं । हजारों गरीब लोग केवल एक लढ़िया से घर भर का पालन करते थे। उनका रेल ने सर्वनाश कर दिया। हजारों अनाथा विधवा पिसौनी कुटौनी कर खाती थी, उनकी रोटी पनचक्कियों ने हर ली। हजागे कोरी कम्बल, खेस गजी गाढ़ा बना के निबाह कर लेते। उन्हें सत्यानास में मिलाने को पुतलीधर खड़े हुए हैं । विपत्ति आती है तो एक ओर से नहीं आती। उधर विदेशियों का यह दांव है कि अन्न और जल भी हम इनके हाथ बेंचा करें और इधर हिन्दुस्तानियों की यह इच्छा है कि मट्टी और इवा भी विलायत से आवे तो खरीदना चाहिए, दाम चाहे जो लगे । रुपया हिन्दुस्तान में अब नहीं रहा । मुसलमानों ने सात से बरस राज्य किया, उसमें भी वाजे २ वादशाहों में हजारों आदमी मार डाले, संकड़ों नगर लूट लिए, तो भी मन्न वस्त्र सबको मिती रहता था। पर इस सुराज्य में सौ ही बरस के बीच यह दशा हो गई है कि देश भर में चौथाई से अधिक जन केवल एक बेर खा पाते हैं, सो भी पेट भर नहीं। तिस पर भी जिनको रामजी ने