पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१९२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१७०
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-पावली होते । लोग नाना प्रकार के तर्क वितर्क करने लगे। किसी ने कहा-'राज जुवति गति जानि न जाई' किसी ने कहा, चतुर तो हई हैं, कौन जाने-'चौये पन नृप कानन जाही' का उदाहरण दिखावें। किसी ने कहा, अभी यही तो कांग्रेस वालो को दंडनीय ठहराते थे, एक बारगी क्यों कर बदल जायंगे। जरूर कुछ दाल में काला है। इनका यहां आना भेद से खाली नहीं है । अवश्य 'कोई माशूक है इस परदए जंगारी में'। अस्तु, बहुत कहने सुनने से मिला लिए गए। पर २६ तारीख को कुछ बोले चाले नहीं। इममे सबको निश्चय सा हो गया कि दिन भर का भूला सांझ को घर आ गया होगा। पर २७ तारीख को लीला दिखाना आरंभ ही तो किया! आप जानते हैं शिवजो गरल- कंठ तो हई हैं । उसको झार हम मनुष्यों से कहां सही जातो है । आप बोलते जाते थे, लोग हिचकी ले ले के रद्द करते जाते थे ! अंत में जब श्रोतागण बिलकुल उकता गए तो 'गच्छ गच्छ सुर श्रेष्ठ' वाला मंत्र पढ़ने लगे। अस्तु, आप विराजे और हमारे परमा- चार्य ( सभापति ) श्रीयुत जाजंयूल तथा श्री नवलविहारी बाजपेयीजी ने उस विष की शांति के लिए मंत्रपाठ किए। दूसरे दिन हमारे सी० एस० आई० महाशय अपनी काशो को पधार गए और कांग्रेस रूपी कलानिधि का ग्रहण छूटा ! सबको आनंद हुवा, जिसका वर्णन करने को बड़ा सा प्रय चाहिए ! जहां स्कूल के छात्रो तक को देशभक्ति का इतना जोश था कि रेल पर से डेलीगेटों को बड़ी प्रीति के साथ लाते थे, और डेरों पर सारा प्रबंध बडी उत्तमता से करते थे. तथा चपरास पहिन पहिन के व्याख्यान मंदिर का इंतजाम करते थे, और प्रतिपल प्रेम प्रमत्त रहते थे, प्रतिनिधियो की सुश्रूषा में ही अपना गौरव समझते थे, ( परमेश्वर करे कि हमारी राज राजेश्वरी इन वालंटियरों को शीघ्र वालंटियर बनावें और अपनी कोति तथा हमारी राजभक्ति बढ़ावें ) वहां दूसरों के आनंद का क्या कहना है ! तीस तारीख को सामाजिक व्याख्यान हुए थे और उसी दिन बहुत से लोग विदा भी हो गए थे। उस दिन अवश्य सब सहृदयो को वैसा ही खेद हुवा होगा जैसा रामचंद्रजी को चित्रकूट में छोड़ के श्री पादुका लिए हुए भरत जी के साथ अयोध्यावासियों को घर लौटती समय हुवा था! पर हम उसका वर्णन करके अपने पाठकों को वियोग कथा नहीं सुनाया चाहते । १८८९ मे बंबई की कांग्रेस के लिए सनद होने का अनुरोध और दुसरे अंक में प्रयाग की कांग्रेस के कर्तव्य सुनाने का इकरार करके इस अध्याय को यही समाप्त करते हैं । 'बोलो 'कांग्रेस की जै!' बोलेगा सो निहाल होगा। बोलो 'महारानी विक्टोरिया की जै ३ !' । खंड ५, सं० ६ ( १५ जून है० सं० ५)