पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१८४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१६२ [प्रतापनारायण पावकी वर्धक पदार्थ न खाया करें। बहुधा स्त्रियां मिट्टी को भून के बहुत खाती हैं यह महा औगुन है । न खाया करें। घी दूध आदि पुष्ट वस्तु खूब खाया करें। लड़के को रोने के 'हर से अफीम बहुत न खिलाया करें । तेल और काजल लगाने में न अलसाया करें। कपड़े, बिछौने आदि स्वच्छ रक्खा करें। लड़का कुछ स्याना हो तो रीछ, भूत, हौवा, गोदने वाले का नाम ले के उसे डरपोक न बनाया करें। बोलने लगे तो गालियां न सिखाया करें। बहुत पहिराय उढ़ाय के अकेले न छोड़ा करें । पढ़ाने वाले से यह न कहा करें कि "जाव, हमार बच्चा भीख मांग खाई, न पढ़ी।" जिन स्त्रियों से उन्हें हंसी करने का •नाता है उनके पास अधिक न रक्खा करें । यही बहुत कुछ है। पिता का कर्तव्य मुख्य तो यह है कि यदि माता अपने कर्तव्य ( जो पहिले लिखे गए हैं ) न निभा सके तो यथावकाश स्वयं उन पर ध्यान रखें, नीति के साथ उन्हें (स्त्रियों को ) निज कृत्य के योग्य बनाने की चेष्टा करते रहें। नोचेत् न्हाने खाने सोने के अतिरिक्त उनको संगति ही से दूर रक्खें। भोजन, वस्त्र, शरीर और गृह की स्वच्छता पर ध्यान रखना परम कर्तव्य है । भोर सांझ के समय निर्मल वायु सेवन, समयानुकूल व्यायाम कसरत, सोने जाने का नियत काल, सबसे सरल व्यवहार, भले लोगों का संग, भले कामों में रुचि, भली बातों में श्रद्धा, मधुर भाषण इत्यादि भी पिता ही सिखा सकते हैं । लड़कों के बिगड़ने का हेतु बहुधा यही होता है कि उनके पितृचरग उनके आचरण पर या तो ध्यान ही नहीं देते हैं या उनका बात बात पर इतना दबाव रखते हैं कि वे निरे दबल हो जायं। घर में आ के स्त्री से अथवा बाहर निज मित्रों से स्वच्छंद वार्ता करते हैं। इसमें लड़कों का चित्त भी बिगड़ेल हो जाता है। अतः पिता को योग्य है कि ऐसे २ अवसरों पर संतान का इतना ही संकोच रक्खें जितना संतान को बड़ों के आगे रखना चाहिए। इसके सिवा पुस्तकादि की असाव- धानता, पढ़ने से जी चुराना, नशा, जुवा, झगड़ा, बड़ों की बेअदबी इत्यादि से बचाने में पूर्ण प्रयत्न रखना चाहिए । जो नोकर उनके ( लड़कों के ) साथ रक्खे जायं उनके स्वभाव की परीक्षा भो अवश्य कर लेनी चाहिए । ढीठ, मुंहलगे, दुरभाषी, दुराचारी न हों नहीं तो लड़कों का बिगड़ना बहुत सहज है। साथ के सड़कों को भी देखते रहना चाहिए कि कौन सा है । संगति का गुण बड़ों को लग जाता है,लड़के तो लड़के ही हैं । मामूली खर्च तथा मेले ठेले का खर्च भी सामर्थ्यानुसार विचार के इतना देना चाहिए जिसमें उन्हें अपव्ययी बनने की संभावना न हो अपच निज मित्रों से रिण लेने का भी अवसर न आवे । उत्तम तो यह है कि उन्ही से पूछ के सथा उन्हें भली बुरी रीति समझा के दिया जाय । बड़ी समाओं तथा विद्या सम्बन्धी कौतुकों ( इल्मी जलसों) एवं जिन तमाशों में कुवाच्य और कुकृत्यों की शिक्षा संभावित न हो उनमें जाने से कभी रोकना न चाहिए । बहुत प्रकार के बहुत से लोगों की बहुत सी बातें देखने सुनने से सहृदयता आती है। वरंच ऐसे स्थान पर अपने साथ ले जाके प्रत्येक विषय को समझाते रहना चाहिए। जहां तक हो पुत्र से सुमित्र का सा बर्ताव रखना योग्य है जिसमें उसे अपनी कोई बात छिपाने की इच्छा स्वयं न हो। ऐसा होने से बढ़ाया है