पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१७६

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नास्तिक संसार की गति बड़ी बेड़ी है। इस में सत्य बड़ी कठिनता से ढूंढ़े मिलता है । जैसे सच्चा आस्तिक कही लाखों में कोई बिरला मिलता है वैसे ही सच्चे नास्तिक का मिलना भी सहन नहीं है। पुराने ढरें के लोग नास्तिक शब्द को निदित समझते हैं और आज- कल के अंगरेजीबाज बहधा नास्तिक बनने में अपनी शोभा समझते हैं पर हमारी समझ में जो लोग अपने को मास्तिक समझे बैठे हैं उन में नास्तिकों की संख्या बहुत है और नास्तिकता का दावा तो बहुत ही मुशकिल है क्योंकि मनुष्यात्मा का जातिस्वभाव है कि नितांत परवशता में सहारा ढूंढ़ती है। यदि कोई नास्तिक भाई किसी अत्युच्च पर्वत से गिर पड़े जहां कोई बचाने वाला देख न पड़ता हो, गिरते समय क्या उनका चित्त किसी बचाने वाले को न चाहेगा? उस समय बुद्धि ठिकाने न रहेगी कि वुह विचार सके कि यहां बचाने वाला कौन है। आंखों से यह न सूझेगा कि बचाने वाला वुह बैठा है । जिह्वा में यह शक्ति न रहेगी कि बचाने वाला यदि कोई बैठा भी हो तो उस से कहें कि भाई कृपा करके हमारी रक्षा करो! हाथ पांव तो किसी काम ही के न होगे कि कुछ पुरुषार्थ कर सकें ! पर अन्तःकरण एक बचाने वाले की आशा करेगा। वुह इन्द्रियों भर के अगो- घर पर्वत पर से गिरे हुए नितांत असमर्थ को बचाने में समर्थ बचाने वाला कोई मनुष्य नहीं है क्योंकि मनुष्य वहां दिखाई नहीं देता। यदि दिखाई भी दे तो जिस समय हमारे पांव उखड़ गए हैं पृथ्वी पर आ के जीवन समाप्त होने में केवल दो चार पल की देर है, उस समय मनुष्य हमारी रक्षा में क्या उपाय कर सकता है ? केवल मुख से इतना कह सकता है 'अरे ! राम २!' पर वुह कौन है जिसकी आशा हमारा चित्त करेगा? वही हमारी नास्तिकता का नाशक हृदेश्वर ! फिर भला नास्तिक होना क्या सहज है ? हमें सहनों ऐसे लोगों से काम पड़ता है जो शास्त्रार्थ के समय ईश्वर का अस्तित्व खंडन करने में पूर्ण योग्यता दिखलाते हैं पर विपत्ति काल में ईश्वर ही ईश्वर चिल्लाते हैं । हमें एक नास्तिक मित्र की दशा सदैव स्मरण आती है जिसने जीवन काल में कभी ईश्वर नहीं माना पर मरने के कई महीना पहिले अत्यन्त रुग्ण रह के, असह्य कष्ट सह के, वैद्य हकीम डाक्टरों से पूर्णतया निराश हो के, मरने के लिए मिनिट गिन रहा था। हम लोग उसकी दशा पर त्राहि २ कर रहे थे । उस अवसर पर उस्को अल्प- बयस्का पत्नी, जिसने संतान का मुख ही न देखा था, जिसका रक्षक संसार में केवल संसार में पति था, वुह आई और करुणासागर में डूबी हुई, आंसुमों से भीगी हुई, टूटी हुई वाणी से कहा, 'हाय ! अब मैं क्या करूं !' फिर लिपट के चिल्लाई कि 'मुझे किसके हाथ सौंप जाते हो ?' उस समय हमारे मित्र के मुख से यही निकला था कि 'ईश्वर !' हमें निश्चय है कि हमारे पाठकों में भी बहुतों ने ऐसे वा इसी ढंग के दृश्य देखे होंगे। फिर भला हम कैसे मान लें कि नास्तिकता सहज है। यों तो जितने लोगों के मुख पर