पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१६८

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काम हिंदीप्रदीप' के संपादक विद्या, बुद्धि, वय और स्नेह आदि को रीति से हमसे ऐसे श्रेष्ठ हैं कि सनातन शिष्टाचार (श्रेष्ठ रिषियों का आचार) के अनुसार हम उन्हें अहंकार पूर्वक गुरु वा पिता समझ सकते हैं। उन्होंने एक बार मन के वर्णन में अपने कलम को कारीगरी दिखाई थो, और हमारे आर्य कवियों ने काम का नाम मनोभव अर्थात् मन का पुत्र लिखा है, अतः हम अपने निज अधिकार ( रुतबा दर्जा ) के अनुसार काम का बखान करते हैं। काम का अर्थ चाहे स्त्री संबंध समझिये, चाहे क्रिया मानिए, चाहे कामना या इच्छा, चाहे फारसी में गरज ( जैसे खुदकाम का अर्थ है खुदगरज ), सब की उत्पत्ति मन से है और मन का ईश्वर के साथ बहुत गहिरा संबंध है। इसी मूल पर भगवान कृष्णचंद्र के पुत्र प्रद्युम्न को कामदेव का अवतार कहते हैं और शास्त्रों मे लिखा है कि ईश्वर से मन की उत्पत्ति है, और मन से काम की उत्पत्ति है, एवं सब कोई जानता है कि ईश्वर के रूप, गुण, स्वभाव सब अनंत हैं कि उनका वर्णन असंभव है। फिर भला ईश्वर के नातो काम का वर्णन क्या सहज होगा? यदि अनंत न कहिये तो भो महा दुष्कथ्य तो हई है। नहीं तो कहिये, देखें कहां तक कहोगे। जितनी वस्तु भूगोल खगोल में देख पड़ती है। सब ईश्वर अथवा मनुष्य के काम है। जितनी बात आप कहते, सुनते, विचारते हैं, सब काम है। करना, कहना, मुनना, विचारना स्वय काम हैं। काम से खाली कहीं कोई नहीं। जो मनुष्य, जो जीव, जो पदार्थ आपके समझ में निकम्मे हैं वे भी, यदि मान ही लीजिये कि सचमुच निकम्मे हैं, तो भी, निर- र्थक पड़े ही रहते हैं, पृथ्वी का थोड़ा सा भाग ही रोके हैं । क्या पड़ा रहना और रोकना काम नहीं हैं ? फिर काम से शून्य कौन है, क्या है ? सबसे अच्छी बातें, जिनको रिषियों ने मनुष्य जन्म रूगे वृक्ष का फल माना है, जिनके लिए बड़े २ लोग ईश्वर से याचना करते हैं, वे अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष हैं । और सब से बुरी सर्वथा त्याज्य बातें भी काम, क्रोध, लोभ, मोह हैं । इसमें भी विचार के देखो, अर्थसंचय, अर्थभोग, धम्मधिर्म, कल्पमोक्षसाधन, मोक्षप्राप्ति, क्रोध करना, मोह करना, सब काम ही के भेद हैं, एक प्रकार के काम ही हैं । और तो और व्याकरण को रीति से काम अर्थात क्रिया (Verb) के बिना कोई वाक्य ही नहीं बन सकता। फिर भला काम के बिना 'क्या बने बात जहां बात बनाए न बने' । जब कि जन्म लेना, खाना पीना, सोना जागना, चलना, फिरना, अन्त में मर जाना, फिर शरीर का कृमिवत् भस्म होना; जीवन का नर्क ..स्वर्गादि भोगना, सब काम ही हैं तो फिर कैसे कहें कि दुनिया में किसी भांति, कभी, किसी को, काम से छुटकारा है। हम दुनियादार हैं, हमारी बातें जाने दो, महात्मा मुनि लोग दुनिया के सब झगड़े छोड़ के, बन में जा बैठते हैं, उनका दुनिया छोड़ना और बैठ रहना भी काम ही है। खैर, हठतः कह दीजिए कि नहीं है, भगवद्भजन,