पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१४८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

१२१ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली "जा बजा से कुरमान की आयतें गलत तौर पर पढ़ कर उसके मानी झूठी ताबीलों से गढ़ के मुसलमानों को हिदायत करते हैं कि तुम्हारे मजहब में गाय का खाना दुरुस्त नहीं।" यह तो सब है कि बिना अरबी पढ़े कुरआन की आयतें क्या साधारण शब्द भी अरबी का शुट नहीं उच्चरित होता, और हिंदुस्तान भर में शायद दो एक बरबी जानने वाले हिंदू और संस्कृत जानने वाले मुसलमान निकलें। इस हालत में गलती होना असंभव नहीं। पर मानी ( अर्थ ) का गढ़ना बिना पढ़ी भाषा में असंभव है। जैसा मरबी पढ़े हुओं से सुना वैसा कह देना या लिख देने में हिंदुओं का क्या दोष है ? कई एक प्रसिद्ध मौलबियों से सुना गया है और शरीफ मुसलमानों को गो मांस से पक्का परहेज देखा गया है। इससे स्वयं सिद्ध है कि गाय खाना मुसलमानों को परमावश्यक नहीं है । "इस हफ्ते में कई एक नाटक भी इसी गाय के मुतअल्लिक खेले गए" यह सरासर झूठ है । दास अपने शहर की खबर, और एडिटर हो के, झूठी छापे ! यह बात का बतंगड़ नहीं तो क्या है ? नाटक कही कोठरी में नहीं होते, सैकड़ों लोगों के सामने सरकारी नाटयालय में होते हैं । इस हफ्ते में क्या इस मास में केवल एक नाटक गोरक्षा विषयक एम० ए० क्लब ने खेला है। '३१ मार्च को एक बछड़ा खड़ा करके चंद मुसलमान लड़कों से, जिनको पेश्तर से तालीम कर रक्खा गया, गाय की अस्तुति गवाई' यह वाक्य भी निरे झूठ है । पंच क्लब (जिसमें केवल दो ब्राह्मण शेष सब मुसलमान हैं) ने गऊ की बिनती गाई थी। इसमें उक्त क्लब की उदार चरित्रता और हिंदू मुसलमानों के प्रति दृढ़ होने की इच्छा प्रत्यक्ष दृष्टि पड़ रही थी। देखने वाले गाय के दुख सुन के दुखी ही न हुए थे बरंच पंच क्लब की मुहब्बत से भर गए थे । यहाँ तक कि M. A. क्लब की तरफ से श्री बाबा हरनाम सिंह ने और श्री भारत मनोरंजनी सभा की ओर से प्रताप मिश्र ने तथा दर्शकों में से एक साहब ने बड़े स्नेह से धन्यवाद दिया था और हकीकत में उन्होंने तारीफ का काम किया था। आलमें तसबीर का भ्रम है कि पंच क्लब के मेंबरों को लड़का बनाता है। दस बारह बरस वाले लड़के कहाते हैं। वैसा उनमें शायद एक भी नहीं है। होता तो स्त्री भेष में अवश्य दिखाई देता । इसके विरुद्ध दो तीन मित्र पढ़े लिखे उरदू के कवि हैं और उमर में एडिटर से बड़े न होंगे तो छोटे भी नहीं हैं। उन्हें लड़का कहने के न जाने क्या माने हैं। उन्हें तामील करके कोन गवा सकता था। किसी दूसरे क्लब बा मेंबर उन्हें तालीम दे के अपनी हसी कराने से रहा । रुजगारो गवैया नचैयों से वे सीखने से रहे । चलो छुट्टी हुई । नाच गा के हिंदुओं को खुश करके इनाम लेना इनका पेशा कदापि नहीं है। फिर कौन बुद्धिमान उनके गो विषयक गीत सर्व साधारण के आगे गाने को केवल सहृदयना और ऐक्यप्रियता ( सुलह पसंदी)न कहेगा । "ऐसे हालत में मुसलमानों में किसी कदर तशबीस फैलती जाती है।" परमेश्वर की दया से कानपूर में न हिंदू झगड़ालू हैं न मुसलमान । विचारणील हिंदू मुसलमान इस बात से अवश्य प्रसन्न होंगे कि अब वुह भी दिन आ चले कि मुसलमानों का एक समाज हिंदुओं के प्रसन्न करने को अपना धन और समय लगा देता है तथा हिंदुओं का एक समाज गदगद स्वर से मुसलमानों को धन्यवाद आशिरवाद देता है।