पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१२९

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युवावस्था कुछ न होगा, जो करना है करने में जुट जा, दिन थोड़ा है।' भारत माता रो २ कह रही है कि मेरो गति क्या से क्या हो रही है, मेरे हितार्थ, यदि तुम मेरे सच्चे सपूत हो तो, तुम्हें दूर जाना है। क्या तुम्हारा मन इन बातों को सोच के नहीं कहने लगता कि अब मेरा यहाँ अर्थात् आलस्य के साथ रहने में निबाह नहीं है ! खं० ४, सं० ३, ४, ५, ६, ७, ८ (१५ अक्टूबर, १५ नवंबर, १५ दिसंबर, १५ जनवरी, हड सं० ३ और १५ फरवरी, १५ मार्च, ह. सं०४) युवावस्था जैसे धरती के भागों में बाटिका सुहावनी होती है, ठीक वैसे ही मनुष्य को अवस्थाओं में यह समय होता है। यदि परमेश्वर की कृपा से धन बल और विद्या में त्रुटि न हुई तो तो स्वर्ग ही है, और जो किसी बात की कसर भी हुई तो आवश्यकता की प्राबल्यता यथासाध्य सब उत्पन्न कर लेती है। कर्तव्याकर्तव्य का कुछ भी विचार न रखके आवश्यकता देवी जैसे तैसे थोड़ा बहुत सभी कुछ प्रस्तुत कर देती है। यावत पदार्थों का ज्ञान, रुचि और स्वाद इसी में मिलता है। हम अपने जीवन को स्वार्थी, परोपकारी, भला, बुरा, तुच्छ, महान जैसा चाहें वसा इसी में बना सकते हैं । कड़काई में मानो इसी अवसर के लिए हम तयार होते थे, बुढ़ापे में इसी काल की बचत से जीवन यात्रा होगी! इसी समय के काम हमारे मरने के पीछे नेकनामी और बदनामी का कारण होंगे। पूर्वपुरुषों के पदानुसार बाल्यावस्था में भी यद्यपि हम पंडित जी, लाला जी, मुन्शी जी, ठाकुर साहब इत्यादि कहाते हैं, पर यह ख्याति हमें फुसलाने मात्र को है । बुढ़ापे में भी बुढ़ऊ बाबा के सिवा हमारे सब नाम सांप निकल जाने पर लकीर पीटना है। हम जो कुछ हैं, हमारी जो निजता है, हमारी निज की जो करतूत है वह इसी समय है, अतः हमें आवश्यक है कि इस काल की कदर करने में कभी न चूकें । यदि हम निरे आलसी रहे तो हम युवा नहीं जुवां है अर्थात् एक ऐसे तुच्छ जन्तु हैं कि जहां होंगे वहां केवल मृत्यु के हाथ से जीवन समाप्त करने भर को ! और यदि निरे मह धन्धों में लगे रहे तो बल की भांति जुवा ( युवाकाल ) ढोया। अपने लिए धर्म ही भम है, स्त्री पुत्रादि दस पांच हमारे किसान चाहे भले ही कुछ सुखानुभव कर लें। यदि, ईश्वर बचाए, हम ईद्रियाराम हो गए तो भी, यद्यपि कुछ काल, हम अपने को सुखी समझेंगे। कुछ लोग अपने लोग अपने मतलब को हमारी प्रशंसा और प्रीति भी