पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/११७

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उरदू बीबी की पूंजी ] गुड़गुड़ी उड़गुड़ी समेत दस पांच बरतन के सिवा और कुछ नहीं है। सपा शायद सब असबाब मिलाके सौ के घर घाट निकलें, चाहे न भी निकलें । गुण उनमें केवल हाप मटका के कुछ गाना मात्र, विद्या अशुद्ध फशुद्ध दस हो बारह हिंदी उरदू के गोत मात्र एवं मिष्टभाषण केवल इतना जिस्से आप कुछ दे आवें। बस, इसके सिवा अल्लामियां का नाम ही है। उनके प्रेमी, या यों कहिए, अपनी बुरी आदत के गुलाम उनको चाहे जैसा लक्ष्मी, सरस्वती, रम्भा, तिलोतमा, लैली, शीरी समझते हों, पर वास्तव में उनके पास पूरी जमा जथा उतनी ही मात्र होगी जितनी हम कह चुके । बरंच उससे भी न्यून ही होगी। कभी २ वे कह देती हैं कि हम फकीर हैं या हम आपके भिच्छुक है। यह बात उनकी शिष्टता से नहीं बरंच सच ही है, क्योंकि सबसे लेती हैं तो भी कुछ जुड़ नहीं सकता। यदि पंद्रह बीस दिन कोई न जाय तो उन्हें वह नगर छोड़ देना पड़े जहां वे कई वर्ष रही हैं। प्रिय पाठक ! ठीक वही हाल उर्दू जान का भी है। यद्यपि कुछ २ संस्कृत, अंग्रेजी, अरबी की भी सहाय है, और उसके चाहने वाले उसे सारे जगत की भाषामों से उत्तम माने बैठे हैं, पर उसकी वास्तविक पूंजी यदि विचार के देखिए तो आशिक अर्थात किसो को चाहने वाला, माशूक अर्थात कोई रूपवान् व्यक्ति जिसे आशिक चाहता हो, बाग अर्थात बाटिका, गुल अर्थात फूल, बुलबुल अर्थात एक अच्छी बोली बोलने वाला और फूलों में प्रसन्न रहने वाला पक्षी, बागवान अर्थात मालो, सैयद अर्थात चिड़ीमार, चांदनी रात औ मेघाच्छन्न दिन, खिलेवत अर्थात एकांत स्थान, जिलवत या मजलिस कई एक सुंदर व्यक्तियों का समाज, शराब अर्थात मदिरा, कगार अर्थात मांस, साकी अर्थात मद्य पिलाने वाला, मुतरिब अर्थात गवैया, रकीब दुश्मन, गर अर्थात जिसे तुम चाहते हो उस्का दुसरा चाहने वाला, नासिह अर्थात मद्य और वेश्यादि के संसर्ग से रोकने वाला, वायज अर्थात उपदेशक, परनिंदा, खुशामद, उलहना, आसमान अर्थात भाग्यवश, इतनी ही बातें हैं जिन्हें उलट फेर के वर्णन किया करो आप बड़े अच्छे उरदूदा हो जायंगे ! माशूक के रूप, मुख, नेत्र, केशादि की प्रशंसा, अपनी सर्वज्ञता का घमंड, उसे गुल और शमा अर्थात मोमबत्ती एवं अपने को बुलबुल और पर्वाना अर्थात पतंग से उपमा दे दिया करो, रकीब इत्यादि पर जल २ के गाली दिया करो, बस उरदू का सर्वस्व आपको मिल जायगा। चाहे गद्य हो चाहे पद्य हो, चाहे कविता हो, चाहे नाटक हो, चाहे अखबार हो, चाहे उपदेश हो, सब में यही बातें भरी हैं। यदि और कोई विद्या का विषय लिखना हो तो संस्कृत, बंगला, नागरी, अरबी, फारसी, अंगरेजी की शरण लीजिए। इन बीबी के यहाँ अधिक गुंजायश नहीं है । और लिखना तो दूर किनार मुख्य २ शब्द ही लिखके किसी मौलवी से पढ़ा लीजिए, अरे म्यां मजा ही न आवेगा! हमारे एक मित्र का यह वाक्य कितना सच्चा है कि चोर सब विद्या है यह अविद्या है। जन्म भर पढ़ा कीजिए, तेली के बैल की तरह एक ही जगह घूमते रहोगे। सत्य विद्या के बतलाइए पो के ग्रंथ हैं ? हाय न जाने देश का दुर्भाग्य कब मिटेगा कि राजा-प्रजा दोनों इस मुलम्मे को फेंक के सच्चे सोने को पहिचानेंगे। जानते सब हैं कि पूंजी इतनी मात्र है, पर प्रजा का अभाग्य, राजा की रीझ बूझ ! और क्या कहा जाय । खं०४, सं. २ (१५ सितंबर, ह. सं०३)