पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१०४

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पड़े पत्थर समझ पर आपकी समझे तो क्या समझे ! अक्टूबर में जो हमने 'फतेहगढ पंच' को शिक्षा दी थी, हमने समझा था कि कुछ आँखें खुल जायगी। नागरी देवी और उरदू बीबी का भेद कुछ तो समझी जायेंगे। पर सबसे दो मास तक आप मुंह छिपाने पीछे आज पहली जनवरी को 'उपदेशोहि मूर्खाणां प्रकोपाय न शांतये' का उदाहरण बन के आये हैं तो कहते क्या है कि कोई उरद को क्या समझेगा जैसा हम समझते हैं। क्यों नहीं साहब, तभी तो 'रसोई पज' का शब्द गढ़ा है। हजरत, रसोई हिंदो का बन्द है। उसके साथ पकाने वाला कहते तो युक्त था-नहीं तो 'तुआमपज' कहना योग्य है । 'रसोईपज' यह दोगली भाषा है । इससे तो आपको उरदू में खलल मालूम होता हैं। खैर, हमने आपको खातिर से मान लिया कि आप उरद जानते हैं। फिर इससे क्या, उरद स्वयं कोई भाषा नहीं, अन्य भाषाओं का (विशेषतः हमारी हिंदी का) करकट है। बिचारे उसके जानने वाले हम मागरी रसिकों का सामना क्या खा के करेंगे? हाँ, जीभ हिलाना यह और बात है। यद्यपि बिजाती मसखरों के मुख लगना अखिलायनरेन्द्रपूजित पादपीठ महात्मा 'ब्राह्मण' को शोभा नहीं देठा, पर व्यर्थवादियों का दर्पदलन न करें तो भी अच्छा नहीं। अतः जब तक योग्य समझेंगे लेखणी पलाये जायेंगे। पंच जी! हिंदी का गौरव समझना और उसके भक्तों से शास्त्रार्य करना आप ही की सी बुद्धिवालों का काम नहीं है । पहले उरद हो भलीभांति सीखिये, फिर किसी नागरी नागर की सेवा कीजिये । तब देखा जायगा। अभी तो जान पड़ता है कि आप इस देश ही में नए आये हैं । अथवा दिल्ली में रहे पर भाड़ झोंकते रहे हैं। नहीं तो जिस 'ब्राह्मण' को यहां मुखं से मूर्ख और विद्वान से विद्वान जगतगुरु, देवता और महाराज इत्यादि कहता और पूजता है उसे आपने केवल रसोईपज समझा है। फिर उसके गुण और उसकी बचनलालित्य क्या धूल समझेंगे? और बिना समझे किसी बात में कान पंछ हिलाना निरा झख मारना है। ऐसी समझ पर तअरुज फरमाइयेगा तो अपने मन ही मन में चाहे जो फूल उठिये, पर बुद्धिमान लोग जान जायंगे कि कौन कितना है। बस मुतंजा का शब्द नागरी में लिखा जा सकता है, परंतु गणित, ब्राह्मण और मंत्रादि शब्द लिखने में उरदू वाले ऐसे अक्षम हैं जैसे सन्तानोत्पत्ति में .." और आत्मविद्या में यवन । इस विषय को हम यथोचित रीत से सिद्ध कर चुके हैं पर 'पत्रन्नैव यदा करीर विटपे दोषो वसन्तस्य कि ?' मियां न समझें तो हम कहां तक अन्धे के आगे रावें अपने दोदे खोयें । बेहयायी हो तो इतनी हो कि उत्तरदाता की बात न समझने पर भी अपनी ही जीत मान ले। ऊपर से दूसरी बुद्धिमत्ता यह दिखाई है कि 'नागरी में सनात तजनी नहीं होतो', अर्थात नतीजा में नैचा, चूना में जूता, आलू बुखारा में उल्लू विचारा इत्यादि का धोखा नहीं होता!