पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/१०१

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गंगा जी] कही जायं । इधर वेदों में 'इमं मे गंगे' इत्यादि मंत्र हैं। पुराणों में एतद्विषयक बहुत सो कथाएं हैं तो आल्हा में भी "गंगा किरिया राम दुहाई हम ना घरब पछार पांव" मौजूद है । भक्तों के लिये नहाने और ठाकुर नहलाने को गंगा, व्यापारियों के लिये नावें आने जाने को गंगा, सहृदयों के लिये सायंकाल हवा खाने को गंगा, अनेक प्रकार के रोगियों के लिये जल और बालुका द्वारा ब्याधि हटाने को गंगा, बेईमानों के लिये बात २ पर उठाने को गंगा, नगर भर का अघोर बहाने को गंगा, मृतकों की अन्त्येष्टि बनाने को गंगा, नए मत वालों के मुंह बिचकाने को गंगा, राह में मिशनरियों के बाज सुनाने को गंगा, और हाय ! निर्दई हत्यारों को मछली फंसाने के लिये जाल फैलाने को गंगा! प्यारे पाठकगण ! दूर तक समझ लीजिये, कहां २, कैसे २, किसको २ गंगा से प्रयोजन है। यद्यपि हमारे यहां बहुत सी नदियां हैं पर ऐसा सर्वव्यापी संबंध किसी का नहीं । जमुना जो भगवान कृष्णचन्द्र के नाते पूजनीया मानी जाती हैं, पर हमारी गंगा की छोटी ही बहिन कहलाती हैं । ऐसी कोई संप्रदाय नहीं जिसमें गंगा न मानी जाती हों । ग्रंथ के ग्रंथ गंगा जी की महिमा से भरे पड़े हैं और अब भी बनते ही चले जाते हैं । हमारे २ तीर्थ और बड़े २ नगर बहुत ही थोड़े हैं जो गंगा पर न हों। जहां से गंगाजी दूर हैं यहां कोई कुंड व कोई छोटी नदी का नाम गंगा संबंधी अवश्य होगा । हमारे बैसवाड़े में एक कहतूत है कि 'का गंग हाड़ ले हो ?' इसमें मालूम होता है कि कभी किसी स्पान के हिंह, जिनसे गंगा बहुत दूर हैं, वे अपने प्रिय मृतकों की हड्डियां गंगा में पहुँचाना बड़ा उत्तम समझते होंगे। सभी नदियों के तटस्थ ब्राह्मण घाटिया इत्यादि कहाते हैं पर गंगा के नाते लाखों ब्राह्मण गंगापुत्र के नाम से पुकारे जाते हैं, और कैसे हो क्यों न हों, पुजाते हैं । क्यों न कहिये कि गंगा हमारी एक महत्तम प्रेमाधार हैं । धन्य गंगे ! सर्वदेवमयी गंगा जिन्होने कहा है, निहायत ठीक कहा है, क्योंकि 'श्रीहरिपद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस । ब्रह्म-कमंडल- मंडन, भव-खंडन, सुर-सरबस । शिवसिर मालती-माल, भगीरथ नृपति-पुन्ध-फल । ऐरावत-गज गिरिपति हिम-मग कंठहार कल ॥' इत्यादि वाक्य स्मरण होते ही तबियत को ताजगी होती है । फिर तुम्हें अमृतमयी क्यों न माने ? बहुत का विश्वास है, बहुत पोथियों में लिखा है कि गंगास्नातक मरणानन्तर शिवत्व अथवा विष्णुत्व को प्राप्त होता है। श्रीमान कविवर अबदुल रहीम खां ( खानेखाना ) जो अकबर के समय में संस्कृत के मोर भाषा के बड़े अच्छे वेत्ता थे, उनका एक श्लोक बहुत प्रसिद्ध है कि 'अच्युतचरणतरंगिणि! शशिशेषरमौलिमालतोमाले । मम तनुवितरणसमये हरता देया न मे हरिता ।' अर्थात् विष्णु बनाओगी तो मुझे कृतघ्नता का दोष होगा, क्योंकि तुम उनके चरण से निकलो कहाती हो। अतएव शिव बनाना, जिसमें तुम्हें घिर पर धारण करू । अन्य मत वाले देख लें कि अच्छे मुसलमान भी हमारी गंगा को क्या कहते हैं । फिर उन हिंदुओं को हम क्या कहें जो गंगा की प्रीति नहीं करते । हमारी समझ में मरने पर क्या होता है यह नहीं आता, पर जीते जी ब्रह्मा विष्णु महेश बना