पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/६९

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पुरानी हिंदी तन्व पर है, न जातिक पर, केवल रूढ संप्रदाय है । वररुचि की महाराष्ट्री और हेमचद्र की जैन महाराष्ट्री मे भी दो मुख्य अतर है-वररुचि कहता है कि वर्ण लोप होने पर दो स्वरो के बीच में 'य' श्रुति नहीं होती, जैन 'य' श्रुति मानते हैं, जैसे कविता की महाराष्ट्री मे सरित् का- सरिआ, जैन महाराष्ट्री में ईपन्स्पृष्टतर 'य' श्रुति से सरिया। यह हमारे चिरपरिचित 'गये, गए' झगडे का पुराना रूप है । दूसरा यह है कि कविता की महाराष्ट्री मै सस्कृत 'रण' का सदा 'न' होता है, जैन दोनो काम में लाते हैं, पदादि मे 'ण' कभी नहीं लाते । साहित्य की प्राकृत को जब आवश्यकता पड़ी तव उसने देशी शब्द लिए और सस्कृत भी जव चाहती है तब उन्हें सुधार संवार कर ले लिया करती है। साहित्य की प्राकृत में यह बात भी है कि प्रत्येक संस्कृत शब्द को वह अपने ही नियमो से तत्सम या तद्भव रूप बनाकर काम नहीं ले सकती, जो शब्द आ गए हैं, उन्ही का विवेचन उसके नियम करते है, उन्ही नियमो मे नए शब्द बनाए नहीं जा सकते। हेमचद्र कह गए है (८।२।१७४) 'इसी लिये कृष्ट, घृष्ट, वाक्य, विद्वस्, वाचस्पति, विष्टर- श्रवस्, प्रचेतम्, प्रोक्त, प्रोत, आदि शब्दो का, या जिनके अंत मे क्विम् आदि प्रत्यय हो उन अग्निचित् सोमसुत् सुग्ल, सुम्ल आदि शब्दो का, जिन्हें पहले कवियो ने प्रयोग नहीं किया, प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योकि वैसा करने से प्रतीति मे विषमता आती है, दूसरे शब्दो से ही उनका अर्थ कहा जाय जैसे कृष्ट के लिए कुशल, वाचस्पति के लिए गुरु, विष्टरवा के लिये हरि इत्यादि। श्रागे इस लेख के उदाहरणाश के दो भाग है---पहले मे सोमप्रभ की उद्धृत कविता है, दूसरे में उसकी तथा सिद्धपाल की रचना के नमूने । विस्तारभय से अर्थ देने की यह रीति रक्खी है कि प्रत्येक पद का मिलता हुआ हिंदी अर्थ क्रम से रख दिया है फिर स्वतन अनुवाद नहीं किया, उसी को मिलाकर पढने और पढती बार मन मे अन्वय कर लेने से अर्थ प्रतीत हो जायगा ।