पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/३८

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पुरानी हिंदी ३३ 'अकृत्वा' और 'गृह्य' दोनो मिलते हैं। वेट मे "कृत्वाय' मिलता है और पानी मे 'छित्वान' और 'कातून' । अतएव पनि तरह के रूप हुए, कृन्वा, न्याय, कृत्वान, कर्तन, कर्य (कृत्य) । सूक्ष्म विचार मे ये अब्धय नहीं कितु तु अनवाने धातुज शब्द के तृतीया और चतुर्थी के म्पो के मे जान पढने हैं, मृग से, करने मे = कर कार, इत्यादि । प्राकृत मे 'वा' विन्नकुल नहीं है, है या पाली वाला 'त्यान, ' 'तून' जो 'तूण' या 'काग' होता हुआ मराठी न. म्हगून तक पहुंच गया है और माग्वाही में पारीनै, लजीने मे रहा है। पुनी हिंदी अर्थात् अपनश में 'पोनिवि चोरिलदिनादि ग्राते है। वहां भी 731 है । हिंदी में 'य' के रप में पाया है (प्रा., मुनि= पायर, गुन्-२० श्रायास्य श्रुण्य ('), अव 'इ' भी उर गया है। गौर कर घानु पूर्व का का अनुप्रयोग होता है जैम खा कर = (पु० हिगार कनि = पात्री, ना. करी - म० "खाद्य कार्य (')। (७) गय गय रह गय तुरग गय पायवादा निभिच्च । सग्गदिव्य फरि मन्तण उग्मुहहु (ता?) रहाऽच्च ।। पाठातर-पायकडा, उपुर सदाच्न, उगुड, मतण नहता। अर्थ-(जिसके) गज, न्य, घोडे और पैदल चले गए हैं, जो विना नोकर के है (ऐसे मुझ को) है स्वर्गस्थित रुदादित्य । खुला ले। मैं तुम्हारी और मुंह किए हुए हूँ! गय--गत, 'गए' । गय--गज । रह-रय । तुरय--तुरग पाया- डा के लिये (१) मे सदेसडो की टिप्पणी देखो । पायका-पंदत, पदाति, पद्ग, पाजी (पुराना अर्थ), जामे हनूमान से पायक (तुलसीदाम) । निमित्र- निभृत्या। सम्गट्ठिय--स्वर्गस्थित । करि-कर (मामा) मतरण-(प्रा) मन्त्रण, बात करना, बुलाना। उम्मुह-उन्मुख । रुहाइच-रुद्रादित्य । (a) मुंज गलियो मे मांगता फिरता था। पहले कैदियो का यों अपमान पिया जाता था। हाय मे उसके पडुआ (पत्तो का दौना) या। विसी स्त्री ने का पिला दी और घमड से सिर मटकाकर भीख न दी। मुज बोला--- पुहि. ३ (१९००-७५)