पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/३३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६ पुरानी हिदी " 7 जाय। 11 ऊग्यो तापित जेहि न किय लक्खो भणे निघट्ट । 'गिणं या लभ, दीहा के दहक प्रहवा अट्ट ।। अर्थ-(जिस ) उदय पाए हुएं ( पराक्रमी वीर ) से ( शत्रु) तापित न किए गए, 'न तपाए गए, तो कुशल लक्खा कहता है कि ( उसे जीने के ) गिने हुए दिन ही मिलते हैं, या दस या आठ । यदि वीरता न दिखाकर पड़ा रहे तो "कितने एक दिन जी लेगा? उम्र के थोड़े से दिन । एक न एक दिन तो मरना है ही। इससे अच्छा है कि शत्रुओ को लोहा चखाकर मर कग्या-उगे हुए से, उदित से, या उदित होने पर ।-ताविततापित। निघट्ट-- कुशल. ( हेमचद्र, देशी नाममाला, रिणग्घट्ट ४।३४)। शास्त्री कहते हैं निकृष्ट ( ! ) दीहडा-दिन, देखो (-१) की टिप्पणी मे सदेसडो । पजाबी "ध्याडा (दिहाडा) दिन, धन्न धियाडो धिन घडी ( जमा झीमा फी कविता, मारवाडी ) । के-या, के तापस तिय कानन जोगू-(तुलसीदास) । दह--दस, मिलानो चौदह ! अहवा-अथवा । शास्त्री और टानी दोनों के अनुवाद अशुद्ध हैं। ( ३ ) मालवा के राजा ( परमार ) मुज का राजकार्य तो रुद्रादित्य नामक मन्त्री देखता था और मुज किसी स्त्री पर आसक्त था। रात ही रात मे चिरक्किल नाम के ऊंट पर चढ़कर उसके पास बारह योजन चला जाता और लौट आता । कुछ दिन पीछे मुज ने आना जाना छोड़ दिया तो उस खंडिता ने मुंज को यह दोहा लिख भेजा- मुज पडल्ला दोरडी पेखेसि न गम्मारि । प्रासाढि घणं गज्जी चिक्खिलि होसेऽवारि ।। पाठातर-- गम्मारि। -- अर्थ--मुज, (प्रेम की ),डोरी ढीली हो गई है, खसक गई है, गवार । तू नही, देख ताकि प्राषाढ मे धन (मेषः ) गरजने पर अव (भूमि) फिसलनी हो जायगी। शास्त्री ने अर्थ किया, कि 'अपाढ' का (पापाढीय ) धन गरजता है, किंतु आषादि का 'इ' अधिकरण कारक है, और गज्जीई वर्तमान काल ही नही, किंतु चर्तमान धातुज विशेषण ( गरजता हुआ) की भावलक्षण सप्तमी भी जान पडती है। मागे शास्त्री कहते हैं कि 'तेरे विरह से उपजनेवाले अश्रुनो को धारामो से 7 "1 -" 3,11 . 1