पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/२८

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पुरानी हिंदी पुस्त्व-पुंल्लिंग और पुरुपत्व नहीं आता, और सिद्धराज जयसिंह का यङ्ग अकेला, विना कोश मियान के, भूमंडल को निष्कटक कर देता है, इसलिये लक्ष्मी कमल को छोड़कर उसी मे चली आई।) कहते हैं कि इसमे रामचन्द्र पडित ने दो दोप निकाले, एक तो दल शब्द का अर्थ 'सेना' भापा में होने पर भी सस्कृत मे नहीं है, दूमरै कमल शब्द पुल्लिग और नपुसक लिंग दोनो ही है। नित्य क्लीव नहीं। इसपर राजा ने सव पडितो मे प्राग्रह करके (उपसघ्य) 'दल' शब्द को राजसेना के अर्थ में प्रमाणित करवाया' कितु लिंगानुशासन में कमल की नित्यनपुसकता नही थी, उसे कौन निर्णय करे ? इसलिये 'पुस्त्व च धत्ते न वा' (पुरपत्व धारण करता है या नही) यह पाठ बदल दिया (प्रवचिंतामणि, पृ० १५५-६) । यो सस्कृत के क्षीरसिंधु मे भी कोई कांजी का शीकर पहुंच जाता था। विषयातर होता है कितु इस जैन संस्कृत को एक बात की चर्चा बिना किए आगे बढा नही जाता। हिंदी में क्रियापदो मे लिंग देखकर बहुत लोग चौंकते है, 'वह पाता है, वह पाती है न सस्कृत में है, न लैटिन मे, न अंग्रेजी फारसी आदि मे, इससे बहुत से अन्य भाषामापी हिंदी सोयने से धवरा उठने है । क्रियापदों में लिंग के पाने का वढा रोचक इतिहास है। धातु के शुद्ध क्रिया-वाचक रूप ( सस्कृत तिडन्त ) मे तो लिंग नहीं होता, धातु से बननेवाले क्रियावाचक विशेषणो (वर्तमान या भूतकृदत ) मे उनके विशेषण होने के कारण लिगभेद होता है। हिंदी मे केवल 'हे' धातु. का शुद्ध रूप है, उसमे लिग नहीं है और जो पद वर्तमान या भूतकाल बताते हैं वे धातुज वर्तमान या भूतविशेषण है [पाता है = प्राता ( हुमा) है, पाती है = प्राती (हुई ) है, करता है, करती है, माता पा, भाती थी, १. 'दल' का सस्कृत मे 'सेना' अर्थ जयसिंह और श्रीपाल ने पारापा यह कहना पूजार्थ ही है क्योकि स० १०५३ और ११०७ के बीच में उदयसदरी कथा का कर्ता सोडढल कायस्थ लिखता है, ननु कयमसाध्योऽयमरातिरस्म- द्दलानाम् । [गायकवाड़ ओरिएटल सिरीज न० ११, पृष्ठ ४] २. क्या अब यह बद हो गया है ? आदोलन, संपादक मादि सस्कृत में घर क्या अर्थ देने लग गए हैं ? कई लोग हिंदी की छाया पर 'पावस्यता' प्रगटीकतुं लिखते हैं और संस्कृत साहित्य संमेलन के करांधारी के पास कषायितोदर मुख से बिना जाने ही कभी कभी 'वं महिमा' निकल जाता है।