पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१७७

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१७६ पुरानी हिंदी अन है कि लावण्य, मत्सर से भरा, आग मे कूद पडता है । सुदरता पर दीट न लग जाय इसलिये 'राई नौन' प्राग मे डालते है । लोग -देखो (११५), नावइ-मानो, नाई । देखो ( ५ ) । ( १७१) चम्पयकुसुमहो मज्झि सहि भसलु पइट्ठउ । मोहइ इन्दनील जणि कराइ वइठ्ठठ ॥ [हिंदी-सम = चपक कुसुमहिं मांझ सहि भंवर पंगे । सोहै इद्रनील जनु कन (क) हिं बैठो।] ( १७२ ) अम्मा लग्गा डुङ्गरहिं पहिउ रडन्तउ जाइ । जो एहा गिरिगिलण मणु सो किं धरणहे धरणाइ । मेष ), लागे, डूंगरो पर, पथिक, रटता हुआ, जाय ( = जाता है कि), जो, ऐसा, गिरियो ( को) (नि) गलने ( के ) मन ( वाला) (मेघ है ), वह, क्या, नायिका को, बचावेगा? पहाडो पर मेघ देखकर वियोगी समझता है कि ये पहाडो को निगलेंगे, वह पुकार उठता है कि जिनका ऐसा हौसला है वे क्या बेचारी वियोगिनी को छोडेंगे? अब्भा-अभ्र, रडन्तहु -रडन्तो, पजाबी रड्याना = पुकारना, धरण-- देखो (१), धपाइ-दोधकवृत्ति में 'धनानि इच्छति' % धन चाहता है ।। धरण = धनी-स्वामी, उससे नामधातु धणाइ = धनाता है, 'धरणी' पन करता है (आचार विप) अर्थात् स्वामित्व दिखाता, रक्षा करता, बचाता है । राजस्थानी धपरिणयाप-धणीपन स्वामित्व । ( १७३ ) पाइ विलग्गी अनडी सिरु ल्हसिउ खन्धस्सु । तोवि कटारइ हत्थडउ वलि किज्ज कतस्सु ॥ पाँव मे, (वि) लगी, प्रांत सिर, ल्हसा ( झुक गया) कधे पर, तो भी, कटार पर, हाय, बलि, की जाऊँ, कत की। वीरता की पराकाष्ठा । ल्हसिउ-ल्हसियो, हत्थ डउ-हत्थरो, वलि किज्जाउँ-बलि जाऊँ, किज्जउँ--- कीजी; खन्धस्सु-कंधे का = पर । 1