पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१७५

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"१७४ पुरानी हिंदी देवे ) देवो, देवु (गुज०), भुजण-भोजन, भुजणहि न जाइ-'भोगा तही जाता' भोक्त न याति (दोधकवृत्ति) नहीं ! ( १६५) जेप्पि चएप्पिणु सयल धर लेविण तवु पालेवि । विरण सन्ते तित्थेसरण को सक्कड भुवणेवि ॥ जीतना, त्यागना, सकल, धरा को, लेना, तप, पालना, विना, शाति (नाथ) तीर्थकर से ( = को,), कौन सके, भुवन मे भी ? जेप्पि, चएप्पिण, लेविरण, पालेवि, कियार्था क्रिया स तुम । ये रूप पूर्वकालिक क्रिया के रूपो से मिलते हैं। ( १६६) गप्पिणु वारणारसिहि नर अह उज्जेरिणहि गप्पि । मुआ परावहिं परमपउ दिन्वन्तरहिं म जम्पि ॥ जाकर, बनारस मे, नर, अथ ( वा ) उज्जयिनी मे, जाकर, मुए (लोग), प्राप्त होते है , परम पद, दूसरे स्वर्गा को (= की वात), मत कह । गप्पिण, गप्पि--पूर्वकालिक, वाणारसी या वाराणसी-देखो मा० प्र० पत्रिका भाग २, पृ. २२७-८, परावहि-प्रा, दिव्वतर- अन्य दिव, दूसरे लोक, परमपद ही मिल जाता है तो और स्वर्ग आदि की बात ही क्या, तीर्थान्तर (!) (दो० वृ०), जप-जल्प (स०), "इसमे 'इ' केवल छद के लिये लगा है । (१६७) गग गप्पिण, जो मुअइ जो सिवतित्थ गमेप्पि । कीलदि तिदसावाम गउ सो जमलोउ जिणेपि ॥ गगा, जाकर, जो, मुए (मरे) जो, शिवतीर्थ (काशी), जाकर, खेलता है, निदशावास, गया, वह जमलोक जीतकर । गप्पिणु, गमेप्पि, जिणेप्पि जाकर जीतकर, किलदि-क्रीडति ( स०), तिदसावाश-त्रिदश ( देव ) आवास, गउ-गयो। ( १६८) रवि अत्यमणि समाउलेण कण्ठि विइण्ण न छिण्ण । चक्वें खण्ड मुणालियहे नउ जीवम्गलु दिग्ण ॥