पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१६७

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१६६ पुरानी हिंदी जिस मार्ग से सिह गया रज' लगी तृणो को वे खडे ही खडे सूखेगे हरिएक नही खावेंगे। (१४० ) सत्थावत्थह पालवण साहुवि लोउ करेइ । श्रादनयह मन्भीसडी जो सज्जण सो देइ ॥ स्वस्थावस्थो का (से), पालपन, सवही लोग, करे, आर्तों को 'मत डर ऐसी अभयवाणी, जो, सज्जन (हो) वही, दे। पालवण-पालपन, वातचीत (देखो ४८), साहु-सहु, सब, सो, आदन्नह-पापन्नहुँ, आपन्नो, आतों को मम्भीसडा--मत डर 'मा भैषी' इस वाक्य से बनाई हुई, सज्ञा. स्वार्थ मे 'डी'। ( १४१ ) जइ रच्चसि जाइठिाए हिडा मुद्धसहाय । लोहे फुट्टणएण जिवं घणा सहेसइ तवि ॥ यदि, रचना है, तु, जो दीठा उसी मे, हे हिय 'मुग्धेस्वभाव ! लोहे से, फूटनेवाले से, ज्यो, घने ' सहे जायेंगे, ताप (तुम से) । (या सहेगा ताप तू), जो दीखा उसी मे रमने लगेगा तो ठूटनेवाले लोहे की नरह धड़ी घडी खूब तपाया जायगा तब कही एक जगह जमकर प्रेम करने मे दृढता सीखेगा। रञ्चसि-रचता है, प्रेम करता है, जाइट्ठि अए --जो जो+ दोठा उसी में फुट्टणएण फुटनेवाले से, सहेसहि = कर्तुवाच्य कर्मवाच्य का धोखा होता है। ( १४२ ) मह जाणिउँ वुड्डीसु हउ प्रेमद्रहि हूहुरुत्ति । नवरि अचिन्तिय सपडिय विप्पिय नाव झडत्ति ।। "मैं (ने) जान्यो (नाना), बूढूंगी हौं, प्रेमदह मै, हुहुर यो, न पर अचिंतित आपतित हुई ( आ पडी), विप्रिय। (रूपी), नावे झट । प्रेम इतना था कि मैं दह के समान उसमे डूब जाती किंतु उसमे से मुझे बचाने को विप्रियरुपी नाव मॅटपट मिल गई। वुड्डीसु-वूडूंगी, ( देखो पृ० ३२ ) हुहुरुत्ति-अनुकरण, डूबते समय, सांस, के बुलबुले उठने का, या घबराने का,"नवरि-संस्कृतछायावालो का, केवल' ही नही, वरन्, 1