पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१६६

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पुरानी हिंदी १६५ जो, पनि, मन ही मे, घुमकुमाता हुम्रा, गिनता है, देय न, दम, न, रपया रनिवन (से) भ्रमण करनेवाला, (वह), करान-उन्लालित, घर मे ही, जी, कुत, गुणता है, वह मूर्ख || जो सदा व्याकुल रहे, पैमा न खरचं, वह घर बैठे ही भाला घुमाया करता है, मन के लड्डू फोडता है । खसफसिहूपउ-व्याकुम्न, द्रमु-द्रम सिक्का, दाम रूपउ-रूपक, चांदी का सिक्का, रइ-रति, मन की लहर, मरु- भरमता हुआ, उल्लालिउ-उल्लालित कोन्तु-कुत, भाला, गुरगइ-गुण जालिउ-दुालित, दुर्ललित; मूढ । ( s ) चलेहि चलन्तेहि लोग्नणेहि जे तइ दिल्टा वालि । तहि मयरद्धय दडवडउ पडइ अपूरह कालि ।। (च) चलो से, चलते हुओ से, लोचनो से, जो, ते (ने), दीठे, हे वाले ! उनपर, मकरध्वज, (कामदेव), दडवडा कर, पड, अपूरे (ही) काल मे, या (दोधकवृत्ति के अनुसार) उन पर मकरध्वज का दडवडा (घाड़ा) पडता हैं अपूरे काल में ही । उनपर दिन दहाडे डाका पडता है, वे बेमौन मारे जाते हैं, जिन्हें तैने चचज नयनो से देखा । दडवड उ-अच (व) स्कद कटक घाटी ( दोधकवृत्ति) घाडा, अपूरह कालि-अपूणे काले । ( १३६ ) गयउ सु केसरि पिनहु जलु निच्चिन्तई हरिपाइं । जसु केरएं हुकारडएं मुहहु पहन्ति तृणाई ॥ गया, वह, केसरी, पियो, जण, निश्चित, हरिण, जिसके, केरे, हुंकार से, मुंह से ( तुम्हारे ) पडते हैं, तृण । जिसके हुकार के सुनते ही मुंह से तृण 'पड जाया करते हैं वह सिंह गया, अब नि शक जल पियो । जसु केरए-ध्यान दीजिए कि जसु ( यस्य ) मे षष्ठो को विभक्त सु या उ अलग है, केरएं विशेषण की तरह 'हुकारए' से लगन रखता है, केर विभक्ति नहीं जिसे 'जसु से सटाया जाए । जसुकेरए हुकारडए-यस्स केरकरण हुँकारेण, केर= केरा । यह 'का की के' का वाप कहा जाता है किंतु यह स्वयं ही विभक्ति नहीं है और न सट सकता है । फिर इसके बेटे पोते कैसे सटाए जा सकते है ? इससे मिलता एक मारवाडी प्रसिद्ध दोहा है । जिण मारग केहरि वुवो रज लागी तिरगाह । ते खड़ ऊभी सूखसी नही बासी हरिगाह ।।