पृष्ठ:पुरानी हिंदी.pdf/१४

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पुरानी हिंदी & ही प्राम्रग को भूमि हुई पीर वही पुरानी हिंदी की भूमि है । अतद, व्रज , दक्षियो पजाब, टनक, भादानक, मरु, नवाण, राजपूताना, अवनी, पारियान, दशपुर पोर मुराष्ट्र-हो को यह भापा एकही मुग्न अपनापी जैसे पहले देश मेद होने पर भी एक ही प्राकृत थी। अभी अपनग के साहित्य के अधिक उदाहरण नहीं मिले हैं, न उस भापा के व्याकरण आदि की और पूरा ध्यान दिया गया है। अपभ्रश कहां समाप्त होनी है और पुरानी हिंदी कहाँ प्रारभ होती है इसका निर्णय करना कठिन, किनु रोचक और बडे महत्व का है । इन दो भापायो के नमय और देश के विषय में कोई स्पष्ट रेखा नही खीची जा सकती। कुछ उदाहरण ऐसे हैं जिन्हें अपभ्रश भी कह सकते है, पुरानी हिंदी भी। नम्वृत ग्रयो में लिखे रहने के कारण अपभ्रश और पुरानी हिंदी को लेखशैली को रक्षा हो गई जो मुखसुखार्थ लेखनशैली में बदलती बदलतो ऐमी हो जाती कि उने प्राचीन समझने का कोई उपाय नही रह जाना । उसी प्राचीन लेखनी को हिंदी को उच्चारणानुसारिणी शैली पर लिख दें । जिस प्रकार कि वह अवश्य ही बोली जाती होगो ) तो अपभ्रश कविता केवल पुरानी हिंदी हो जाती है और दुर्बोध नही रहती। इसलिये यह नहीं कद को कि पुरानी हिंदी का काल किनना पीछे हटाया जाय। हिंदी उपमाबाबक 'जिम' या 'जिम' ऐसी पुरानी कविता में 'जिम्य' लिया मिनता है। उसमे उच्चारण मे प्रथम स्वर सयुक्ताक्षर के पहले होने ने गुरु नही हो मलना ( जिम्मच ) क्योकि जिम छद मे वह आया है उनका कम होता है। इन लिये चाहे वह 'जिम्ब' लिखा हो उसका उच्चारण 'जि' या जो जिम ही है । सस्कृत 'उत्पद्यते' का प्राकृत रूप 'उप्पज्जई जो घंट-विरकर जमा के रूप मे है । अब यह 'उप्पजई' अपभ्रश माना जाच या पुरानी हिंदी ? 'जइ' का उच्चारणानुमार लेन करने से 'उपज' हा नाता , (त पकार के कारण उ को मात्रा को गुरुना मानकर ऊपज नही )नि हम हिंदी पहचानते है । सभव है कि जैसे अाजकल हिंदी के विद्वानो में गो-' पर दलादली है वैमे ही 'उपज्जत, उपज, उपज, ऊपर्ज' पर नारियों तक चली हो, यद्यपि उसे अरुतुद बनाने के लिये छापाखाना न था। इन पोथियो के लिखनेवाले सस्कृत के पडित था जैन ताप थे। सस्कृत शब्दो को तो उन्होने शुद्धि ने लिखा. प्राकृत को भी. किंतुन पनि तामो की लेख शैली पर ध्यान नही दिया । कभी पुराना रूप रहने दिया,